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गांधी परिवार के धुर विरोधी स्‍वामी कभी थे राजीव के बेहद करीबी, जानें प्रोफेसर से राजनेता बनने की कहानी

सुब्रह्मण्‍यम स्वामी सियासी गलियारों की एक ऐसी शख्सियत हैं, जो किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। स्‍वामी के वार से न तो उनकी विरोधी कोई राजनीति पार्टी बच पाई और न ही उनका विरोधी कोई बड़ा राजनीतिक व्‍यक्ति। नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अदालत तक ले जाने वाले स्वामी अपने सार्वजनिक जीवन में कई वजहों से चर्चा में रहे हैं। कभी प्रतिभाशाली गणितज्ञ के तौर पर मशहूर रहे स्वामी को कानून का अच्‍छा जानकार माना जाता है। स्‍वामी का बेबाक अंदाज उन्‍हें भीड़ से अलग करता है। कॉलेज के दिनों से लेकर अभी तक के जीवन में उन्‍होंने विरोधियों को कभी बख्‍शा नहीं। आज गांधी परिवार के धुर विरोधी सुब्रह्मण्‍यम स्‍वामी कभी राजीव गांधी के करीबियों में शामिल थे। आज (15 सितंबर) इनका जन्‍मदिन है। आइये इस मौके पर उनसे जुड़ी कुछ रोचक बातें जानते हैं।


Subramanian Swamy


राज्‍यसभा सदस्‍य सुब्रह्मण्‍यम स्‍वामी का जन्‍म 15 सितंबर 1939 को तमिलनाडु के मायलापुर में हुआ था। स्वामी के पिता सीताराम सुब्रह्मण्‍यम जाने-माने गणितज्ञ थे। वे एक समय में केंद्रीय सांख्यिकी इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर भी थे। पिता की तरह ही स्वामी भी गणितज्ञ बनना चाहते थे। उन्होंने डीयू के हिंदू कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री ली। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए भारतीय सांख्यिकी इंस्टीट्यूट, कोलकाता चले गए।


स्वामी के जीवन का विद्रोही गुण पहली बार कोलकाता में सामने आया। उस वक्त भारतीय सांख्यिकी इंस्टीट्यूट, कोलकाता के डायरेक्टर पीसी महालानोबिस थे, जो स्वामी के पिता के प्रतिद्वंद्वी थे। इस वजह से वे स्वामी को खराब ग्रेड देने लगे। इस पर सुब्रह्मण्‍यम स्वामी ने 1963 में एक शोध पत्र लिखकर बताया कि महालानोबिस की सांख्यिकी गणना का तरीका मौलिक नहीं, बल्कि पुराने तरीके पर ही आधारित है।


स्वामी ने 1965 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से अर्थशास्‍त्र में पीएचडी की। इसके बाद वे हार्वर्ड में ही बतौर असिस्‍टेंट प्रोफेसर अर्थशास्‍त्र पढ़ाने लगे। 1969 में उन्‍हें एसोसिएट प्रोफेसर बना दिया गया। 1969 में ही अमर्त्‍य सेन ने स्वामी को दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स में पढ़ाने का आमंत्रण दिया। मगर भारत की आर्थिक नीतियों पर स्‍वामी की सोच के कारण दिल्‍ली आने के बाद उनका अपॉइंटमेंट रद्द कर दिया गया। इसके वे 1969 में ही बतौर प्रोफेसर आईआईटी दिल्ली से जुड़ गए।


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उन्होंने आईआईटी के सेमिनारों में यह कहना शुरू किया कि भारत को पंचवर्षीय योजनाएं खत्म करनी चाहिए और विदेशी फंड पर निर्भरता हटानी होगी। इसके बिना भी भारत 10 फीसदी की विकास दर हासिल कर सकता है। स्वामी तब इतने चर्चित हो चुके थे कि उनकी राय पर तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि यह विचार वास्तविकता से परे है।


इंदिरा गांधी की नाराजगी के चलते स्वामी को दिसंबर, 1972 में आईआईटी दिल्ली की नौकरी गवांनी पड़ी। इसके खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट गए और 1991 में अदालत का फैसला स्वामी के पक्ष में आया। वे एक दिन के लिए आईआईटी गए और इसके बाद अपना इस्तीफा दे दिया।


नानाजी देशमुख ने स्वामी को जनसंघ की ओर से उत्‍तर प्रदेश से 1974 में राज्‍यसभा भेजा। आपातकाल के 19 महीने के दौर में सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी। इस दौरान उन्होंने अमरीका से भारत आकर संसद सत्र में हिस्सा भी ले लिया और वहां से फिर गायब भी हो गए।


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स्‍वामी 1977 में जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे। 1990 के बाद वे जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। 11 अगस्त, 2013 को उन्होंने अपनी पार्टी का विलय भारतीय जनता पार्टी में कर दिया।


चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री रहने के दौरान 1990 में वाणिज्य एवं कानून मंत्री रहते हुए स्‍वामी ने आर्थिक सुधारों की नींव रखी थी। 1994 से 1996 तक नरसिम्हा राव सरकार के समय विपक्ष में होने के बावजूद स्‍वामी को कैबिनेट रैंक का दर्जा हासिल था।


कहा जाता है कि 1999 में वाजपेयी सरकार गिराने में सुब्रह्मण्‍यम स्‍वामी की ही भूमिका थी। इसके लिए उन्होंने सोनिया गांधी और जयललिता की मुलाकात भी कराई थी।


एक समय में स्वामी राजीव गांधी के नजदीकी दोस्तों में भी शामिल थे। बोफोर्स कांड के दौरान सदन में उन्‍होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि राजीव गांधी ने कोई पैसा नहीं लिया है। एक इंटरव्यू में स्वामी ने दावा किया था कि वे राजीव के साथ घंटों समय व्यतीत किया करते थे और उनके बारे में सब कुछ जानते थे।


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