अब तो केजरीवाल को पानी पी-पीकर गरियाने वाले भी यह स्वीकार करने लगे हैं कि दिल्ली में ऑड-ईवन फॉर्मूला अपने उद्देश्यों में कामयाब रहा है. हालांकि इस एहसास के बाद भी मीडिया में ऑड-ईवन के खिलाफ ज्यादा सुर सुनाई दे रहा है. ऐसा क्यों है इसके लिए आपको मीडिया का सामाजशास्त्र और इस योजना के सामाजिक असर दोनों को समझना पड़ेगा. सबसे पहले मीडिया के सामाजशास्त्र कि बात करें तो इस बात पर चर्चा जरूरी है कि मीडिया में आखिर सुनी किसकी जाती है.
आम तौर पर मीडिया में उन्हीं सुविधा संपन्न लोगों की ही आवाज सुनाई देती है जो दिल्ली जैसे शहर में कार रखना अफोर्ड कर सकते हैं. इस वर्ग ने अपने लिए कोठियों और अपार्टमेंटों, एसयूवी और लग्जरी कारों और एयर कंडीशन्ड ऑफिसों में अपनी सुविधा के सारे साधन बटोर रखे हैं. इस वर्ग के अधिकांश लोग अपने ऐशो-आराम के साधन बटोरने में इस तरह मशगूल रहते हैं कि उन्हें यह सोचने की फुर्सत ही नहीं है कि उनके इस एशो-आराम से दूसरों पर और पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है. जिन्हें रोज-रोज कार में बैठने की लत है, वह भले ही घंटों जाम में फंसे रहें लेकिन उसे इस बात की तसल्ली रहती है कि वह कार में बैठा हुआ है. ऑड-ईवन फॉर्मूले की वजह से दिल्ली की सड़के फिर से सांस लेने लगी हैं. वायु की क्वालिटी पर भी इससे असर पड़ा है और इसमें कुछ सुधार हुआ है. लेकिन इसके लिए दिल्ली सरकार को एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी है.
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दिल्ली सरकार द्वारा ऑड-ईवन फॉर्मूले के लिए जिन अतिरिक्त बसों को लगाया है उसका ही खर्च रोजाना करीब तीन करोड़ आ रहा है जबकि टिकटों की बिक्री से मात्र 20 लाख रुपए की आमदनी हो रही है. मीडिया में आई खबरों के अनुसार ऑड ईवन फॉर्मूले के लागू होने के बाद जहां डीटीसी बसे खाली जा रही हैं वहीं दिल्ली मेट्रो की राइडरशिप बढ़ी है. खाली जा रही बसो के कारण डीटीसी को नुकसान हो रहा है वहीं मेट्रों में भीड़ बढ़ गई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि इस योजना से सिर्फ नुकसान ही हो रहा है. इसके कारण सरकारी खजाना भी भर रहा है.
इस योजना के लागू होने के 5 दिन में दिल्ली पुलिस ने 38 लाख से ऊपर जुर्माने के रूप में वसूल चुकी है. ऐसा अनुमान है कि 15 दिन के इस पायलट प्रोजेक्ट के दौरान दिल्ली पुलिस 1 करोड़ से ऊपर जुर्माने के रूप में वसूल लेगी.
इस योजना का बजट नकारात्मक है या सकारात्मक इस पर अर्थशास्त्री लंबी बहस कर सकते हैं, लेकिन विश्व के किसी भी मुद्रा में घुटन मुक्त सांस की कीमत नहीं लगाई जा सकती. खासकर समाज के उस वर्ग के लोगों की सांस की कीमत जो जहरीली हवा में जिंदा रहने के लिए बोतलबंद शुद्ध हवा नहीं खरीद सकते. ज्ञात हो कि हाल ही में आई एक खबर के अनुसार चीन के बीजिंग शहर में शुद्ध हवा की बोतल की मांग जोरो पर है, जहां एक बोतल की कीमत करीब 1850 रुपए है. ऑड-ईवन योजना तो बस शुरुआत भर है अगर दिल्ली को बीजिंग की स्थिति में जाने से रोकना है तो कई अन्य उपाय भी करने पडेंगे. Next…
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