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कांग्रेस की राजनीति में फंसी आप की मुहिम

दायित्वों का वहन अकेला नहीं होता. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. हकीकत यही है और हमेशा रहेगी. पर कुछ दायित्व ऐसे होते हैं जिनमें किसी ‘लेकिन’, और ‘किस तरह’ आदि का अस्तित्व होने के बावजूद इसकी कोई जगह नहीं होती. किसी भी हाल में दायित्व निर्वहन की जिम्मेदारियां पूरी करनी होती हैं और अगर पूरी नहीं हुईं तो तोहमतों के साथ इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है. दिल्ली में ‘आप’ की सरकार के अभी एक महीने भी पूरे नहीं हुए और डेनिश महिला के साथ बलात्कार की खबर आ गई. जाहिर है ऐसे में चुनाव से पहले आप का एक प्रचार विज्ञापन ‘जब तक कांग्रेस की सरकार रहेगी बलात्कार होते रहेंगे’ उन्हें याद कराया जाएगा. तो कराया गया. लेकिन फिर जो कहानी सामने आई वह हास्यास्पद से अधिक राजनीति की गूढ़ता है.


अरविंद केजरीवाल का कहना है कि दिल्ली पुलिस दिल्ली सरकार की नहीं सुनती. एक तरफ दिल्ली वाले अरविंद केजरीवाल से अव्यवस्था हटाने के लिए किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठे हैं और दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल हैं कि दिल्ली पुलिस के सामने खुद ही बेबस नजर आ रहे हैं. सवाल यह है कि अगर दिल्ली का मुख्यमंत्री होकर केजरीवाल खुद ही बेबस हैं तो आम दिल्ली वालों के लिए वे क्या कर सकते हैं?


arvind kejriwal on dharnaगौरतलब है कि दिल्ली पूरी तरह स्व-शासित नहीं है. दिल्ली पुलिस भी राज्य सरकार के अधीन न होकर केंद्र में गृह मंत्रालय के अधीन है. जाहिर है वह राज्य सरकार से ज्यादा केंद्र सरकार की सुनेगी. अब तक दिल्ली में शीला दीक्षित यानि कि कांग्रेस की सरकार थी और केंद्र में भी कांग्रेस ही है. इसलिए राज्य सरकार के लिए पुलिस पर अधीनस्थता का सवाल नहीं था. जाहिर है पार्टी किसी भी राज्य में अपनी सरकार के लिए कोई परेशानी खड़ी नहीं करना चाहेगी. पर अब जब आप की सरकार बनी है और राजनीति के नौसिखिया अरविंद केजरीवाल ने अपने दावों के दम पर कांग्रेस की शीला की सरकार को बाहर का रास्ता दिखाया है तो कांग्रेस के लिए उन्हें जमीन दिखाने की जरूरत आन पड़ी है. ऐसे में दिल्ली पुलिस उसका सबसे बड़ा हथियार है. सरकार अकेली कुछ नहीं कर सकती. सरकार चलाने के लिए इसके कई टूल हैं जिनमें पुलिस सबसे महत्वपूर्ण है. पुलिस की मदद और सहयोग के बिना कोई भी सरकार कानून और व्यवस्था कायम नहीं कर सकती. ऐसे में अगर केंद्र की कांग्रेस ने आप को समर्थन देकर इसे जनता का फैसला मानकर सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया तो दिल्ली पुलिस को केजरीवाल सरकार से असहयोग की हिदायतें देकर सरकार गिराने के हालात भी पैदा कर सकती है. इसका एक इशारा और भी है.


राजनीति में अपने उदयकाल से ही अरविंद केजरीवाल ने किसी भी पार्टी से सहमति-असहमति जाहिर नहीं की है. भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई को अभियान बनाना इन्होंने अपना एजेंडा बताया है और इसी भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस और शीला दीक्षित की खिलाफत भी की है. चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने कहा था कि सरकार में आने के बाद वे कॉमनवेल्थ गेम्स और अन्य मुद्दों पर शीला दीक्षित सरकार की भ्रष्टाचारी नीतियों का खुलासा करेंगे. चाहे वह कितना भी बड़ा नाम क्यों न हो किसी को भी नहीं बख्शा जाएगा. हालांकि कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए आप को समर्थन दिया लेकिन केजरीवाल फिर भी शीला दीक्षित और कॉमन वेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसने की अपनी जिद पर अड़ी है. अब केजरीवाल सरकार के पास पुलिस पर अधिकार नहीं है. जांच के हर हिस्से में राज्य सरकार को पुलिस की जरूरत पड़ेगी और गृह मंत्रालय के अधीन पुलिस कभी भी केंद्र में सरकार के खिलाफ कोई काम नहीं करेगी. ऐसे में केजरीवाल सरकार के पास आखिर क्या रास्ता बचता है? अगर वह बलात्कार के मामलों में पुलिस को त्वरित जांच का आदेश देती है और पुलिस उसकी बात नहीं सुनती तो आखिर वह क्या करे? आम जनता को पता नहीं है कि आखिर मामला है लेकिन बलात्कार के मामले उसे दिखेंगे. असुरक्षा के बनते माहौल में चुनावी वादों का खोखलापन इसे नजर आएगा. इस तरह सत्ता में होकर भी अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के अधीनस्थ रहने के लिए मजबूर होकर अपनी व्यवस्था नहीं ला पाएंगे और इसके साथ इसके लिए जिम्मेदार न होकर भी जिम्मेदार ठहराए जाएंगे. इसका फायदा एकमात्र कांग्रेस को मिलेगा.

लोकतंत्र के लिए खतरनाक ‘आप’ का चमत्कार – भाग 1


केजरीवाल जनता का फैसला जनता के बीच लेने की बात करते हैं. आंदोलनों से शुरू हुआ उनका भ्रष्टाचार संग्राम आंदोलनों के साथ ही सरकार चलाती भी दिख रही है. कांग्रेस ने इसे केजरीवाल का राजनीति में नौसिखियापन माना और दिल्ली पुलिस के सहयोग से केजरीवाल सरकार को अपने वश में करना चाहती है. अब सवाल यह उठता है कि व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई की गैरमौजूदगी भी नहीं बल्कि मौजूदगी के साथ एक टांग अड़ाने वाले रवैये के साथ सरकार आखिर व्यवस्था कायम करे तो कैसे? अगर पुलिस नहीं होती तो पता होता कि पुलिस नहीं है और कोई दूसरी व्यवस्था की जाती लेकिन अगर पुलिस है तो जाहिर है उसे व्यवस्था के निर्देश देकर सरकार दूसरी तरफ रुख करेगी. अगर वह निर्देश न सुनें तो सरकार कैसे काम करे? इससे भन्नाए हुए केजरीवाल ने फिर आंदोलन का रुख किया और धरना पर बैठ गए हैं. अगर इस तरह आप और केजरीवाल इस पुलिसिया अव्यवस्था की राजनीति के खिलाफ कोई हल निकाल पाते हैं तब तो दिल्ली वाले एक चमत्कारी व्यवस्था की उम्मीद कर सकते हैं लेकिन अगर कांग्रेस की राजनीति ने कजरीवाल को झुकाने की कोई और राजनीति कर दी तो शायद इसी उलट-फेर में परंपरागत व्यवस्था से अलग राजनीतिक अक्षमता को साबित करेगी.

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