100 रु. में मोदी की रैली में सामने की सीट बुकिंग कराने का आशय आखिर क्या है? ‘आप’ की नीतियां ‘नेता के आम’ होने और ‘जनता (आम आदमी) के खास होने’ की है. इसमें अगर किसी की महिमा है तो वह है ‘सिर्फ आम आदमी’ की, न कि नेता की. तर्क की दृष्टि पर सच्चे मायनों में यही लोकतंत्र का आधार भी है. एक तरफ आम आदमी पार्टी है जो सभ्रांत मुहल्लों की बिजली-पानी समस्या से लेकर झुग्गी-झोंपडियों में रहने वाले ऑटो-रिक्शा वालों से भी जुड़ा है; उनकी सुविधा, उनके लिए सुव्यवस्था की बातें कर रहा है; दूसरी तरफ मोदी-महिमामंडित भाजपा की नीतियां हैं जो आम आदमी के वजूद को ही कहीं पीछे रखते हुए प्रधानमंत्री बनने से पहले ही ‘महान मोदी’ को उच्च व्यक्तित्व घोषित कर उन्हें वोट दिए जाने की अपेक्षा कर रही है.
लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं और चुनावी सरगर्मियां बढ़ रही हैं. आम आदमी पार्टी (आप) के आने से राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में अब तक सबसे मजबूत मानी जाने वाली दोनों मुख्य पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के चुनावी समीकरण एकदम से बिगड़ गए. उन्हें सुधारने की पूरी कोशिश में जुटी दोनों पार्टियां नित नए समीकरण बनाने और जनता को लुभाने की कोशिशों में जी-जान से जुटे हैं. कांग्रेस को हालांकि इस समीकरण के बिगड़ने का बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला. शायद एक दशक सरकार चलाकर अपनी भ्रष्ट नीतियों से ऊब चुकी जनता से नकारे जाने का सच वह शायद पहले ही स्वीकार कर चल रही है. पर भाजपा के लिए यह बहुत विकट परिस्थिति है क्योंकि इस समीकरण में फिट होने की उसकी नीतियां या तो मोदी मतांध हैं और वह अति-विश्वास के संकट का सामना कर रही है या शायद ‘आप’ उसके लिए कोई बड़ा सदमा है जिससे उबरने का ठीक-ठीक रास्ता वह ढूंढ़ नहीं पा रही.
कांग्रेस अगर इस बार विपक्ष में भी बैठी तो उसे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि शायद वह इस तरह जनता को अपनी भ्रष्टाचारी नीतियां भूलने के लिए 5 साल का वक्त देना चाहती हो. उसे भी पता है कि इस गंदी राजनीति के तालाब में हर मछली दुर्गंध देती है. उसे पता है कि अभी वह सामने है तो उसकी दुर्गंध लोगों को सता रही है लेकिन कोई दूसरा (जाहिर है आप के आने से पहले कांग्रेस के बाद भाजपा ही आती) आएगा तो सामने के दुर्गंध से आहत लोग पहले के दुर्गंध को भूल जाएंगे और फिर से कांग्रेस को ही ढूंढ़ेंगे.. ढ़ूंढ़कर लाएंगे!
‘आप’ के आने से यह समीकरण कुछ हद तक कांग्रेस के लिए भी बदली क्योंकि ‘आप’ और अरविंद केजरीवाल राजनीति के पूरे तालाब को ही गंदगी से मुक्त करने का सबब रखते हैं तो दुर्गंध का तो सवाल ही पैदा नहीं होता…तो इस तरह कांग्रेस के भविष्य पर सवाल उठता है. फिर भी 5 सालों में राजनीति की अनिश्चितता का फायदा मिलने के लिए ये आशान्वित हो सकते हैं. पर भाजपा की रणनीति ‘आप’ की ‘जननीति’ से बौखला गई सी लगती है. एक तरफ सांप्रादायिक होने के आरोपों से उबरने की कोशिश में मोदी और पार्टी कभी किसी मुस्लिम से सम्मानित होते नजर आने की कोशिश करते हैं तो कभी किसी मुस्लिम संगठन से प्रशंसित होकर अपनी मुस्लिम-विरोधी भंगिमा को गलत और निराधार बताने की कोशिश करते नजर आते हैं. ‘आप’ का आना भाजपा और नरेंद्र मोदी के लिए दोहरे संकट से निपटने की चुनौती के समान है जिसके तोड़ ढूंढ़ पाने में महामहिम मोदी की ‘जनसंपर्क शैली’ भी शायद असफल रही हो और अब मोदी के गुणगान के अलावे और कुछ नया कर पाने में पार्टी और स्वयं मोदी भी शायद अक्षम महसूस कर रहे हैं.
अभी पिछले दिनों भाजपा की प्रदेश इकाई ने 5 फरवरी को कोलकाता में आयोजित हो रही मोदी की रैली में शामिल होने और मोदी को करीब से देखने की इच्छा रखने वालों के लिए 100 रु. के मूल्य पर ऑनलाइन सीटों की बुकिंग शुरू करने की घोषणा की. माना जा रहा है कि यह मोदी की रैली से युवाओं को जोड़ने का एक तरीका है. पहले ही दिन `1000 से अधिक सीटों की बुकिंग हो गई. मोदी के प्रशंसक और युवा इसे अच्छा मानते हैं कि 100 रु. खर्च कर उन्हें भावी प्रधानमंत्री (अगर मोदी प्रधानमंत्री बने) को करीब से देखने का मौका मिलेगा लेकिन आज ‘आप’ की नई-नवेली ‘जननीति आधारित’ राजनीति से दिनोंदिन प्रभावित हो रही जनता के सामने यह छ्द्म हुंकार-आधारित, ‘महिमामंडित राजनीति’ के वर्चस्व और इसकी सफलता पर सवाल उठाने के साथ ही भाजपा की चुनावी कार्यशैली पर भी सवाल उठने लगे हैं.
यह सच है कि कांग्रेस का इस बार के लोकसभा चुनाव में सत्ता से बाहर होना लगभग तय है. कोई चुनावी चमत्कार हो जाए तो और बात है लेकिन तथ्यों के आधार पर ऐसा नामुमकिन ही लगता है. यह भी सच है कि केंद्र में कांग्रेस की इस कमजोरी का फायदा भाजपा को मिलना भी लगभग तय है. नई-नई कोंपलें लेकर ‘आप’ का बहुत दूर तक केंद्र में भाजपा का पीछा कर पाना भी संभव नहीं लगता. हां, ‘आप’ अगर वहां कुछ सीटों की राजनीति कर पाने सक्षम हुई तो ऐसा हो सकता है. लेकिन दिल्ली में ‘आप’ की सफलता का रिकॉर्ड देखते हुए केंद्र में भाजपा के लिए इसके बड़ा खतरा बनने की संभावना को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता. पर भाजपा की अति-आत्मविश्वास की स्थिति बयां करती मोदी-मतांध ये नीतियां ‘आप’ की ‘जननीति’ के आलोक में अपनी ‘सांप्रादायिक’ मोदी नीतियों के असफल जान पड़ने की यह बौखलाहट भी हो सकती है. बौखलाहट इसलिए क्योंकि ‘आप’ की ‘जननीति’ की तुलना में अपनी कोई मजबूत नीति ला पाने में यह सक्षम नहीं हो पा रही है. एक तरफ ‘आम आदमी पार्टी’ के कुमार विश्वास साफ कहते हैं कि मोदी अमेठी में उनके खिलाफ चुनाव लड़कर दिखाएं और एक तरफ मोदी हैं कि अभी तक कांग्रेस और ‘शहजादे’ के चारों ओर लट्टू की तरह घूम रहे हैं.
एक तरफ आम जनता 30 रु. में खाना खाने और लड़कियों द्वारा ज्यादा बहादुरी दिखाने जैसे बयानों, भ्रष्टाचार से त्रस्त आकर कांग्रेस की खिलाफत से ज्यादा अपना हित मानकर ‘आप’ का साथ देने को उठ खड़ी हुई है तो दूसरी तरफ भाजपा है जो इस नई चुनावी लहर को समझ नहीं पा रही. एक तरफ ‘आप’ है जो ‘आम आदमी’ को अपनी शक्ति महसूस करने की आजादी की बात कर रही है तो दूसरी तरफ भाजपा है जो आज भी मोदी के महिमामंडन में जुटी हुई, एक व्यक्ति को निरर्थक कालजयी घोषित कर जनता को उसके सान्निध्य में गौरवान्वित महसूस कराने की कोशिश कर रही है. 100 रु. में मोदी की रैली में सामने की सीट बुकिंग कराने का आशय तो कुछ ऐसा ही जाता है. ‘आप’ की नीतियां ‘नेता के आम’ होने और ‘जनता (आम आदमी) के खास होने’ की है. इसमें अगर किसी की महिमा है तो वह है ‘सिर्फ आम आदमी’ की, न कि नेता की. तर्क की दृष्टि पर सच्चे मायनों में यही लोकतंत्र का आधार भी है. एक तरफ आम आदमी पार्टी है जो सभ्रांत मुहल्लों की बिजली-पानी समस्या से लेकर झुग्गी-झोंपडियों में रहने वाले ऑटो-रिक्शा वालों से भी जुड़ा है; उनकी सुविधा, उनके लिए सुव्यवस्था की बातें कर रहा है; दूसरी तरफ मोदी-महिमामंडित भाजपा की नीतियां हैं जो आम आदमी के वजूद को ही कहीं पीछे रखते हुए प्रधानमंत्री बनने से पहले ही ‘महान मोदी’ को उच्च व्यक्तित्व घोषित कर उन्हें वोट दिए जाने की अपेक्षा कर रही है.
तुलनात्मक तौर पर देखें तो आखिर क्यों लोग आप को पसंद नहीं करेंगे? अगर मोदी की रैली में चंदा के नाम पर आज की 100 रु. की ऑनलाइन बुकिंग को देखें या पहले की 10, 20, 30 रु. के चंदे के साथ हुई रैली, मोदी की रैली में लाखों में रु. खर्च होते हैं केवल एलसीडी और रैली की व्यवस्था करने में. मोदी इसे हर आदमी तक अपनी पहुंच बनाने की बात कहते हैं लेकिन क्या यह ‘आम आदमी’ सिर्फ फोन पर ड्यूड बनकर बात करने वाले, फेसबुक और व्हाट्स ऐप पर मशगूल शहरी युवा फौज की मात्र है? क्या इससे ज्यादा यह आम आदमी गांवों में रहने वाले उन किसानों, खेतिहर मजदूरों, शहरों में फुटपाथ पर सोने वाले गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी बसर करने वालों की फौज नहीं है जो अगर 10 रु. भी रैली के लिए देती है तो अपना एक वक्त का, एक आदमी के भोजन का शायद हिस्सा दे रही है? क्या यह लोकतंत्र की मर्यादा का उल्लंघन नहीं है जहां ‘जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा’ शासन होता है? ‘जनता के द्वारा’ का अर्थ ही है ‘एक आम आदमी’! मोदी अगर इस ‘द्वारा’ की सूची में शामिल होने की पहुंच चाहते हैं तो अच्छी बात है लेकिन वे इस आम आदमी से ऊपर नहीं हो सकते. फिर क्यों आम आदमी उनसे मिलकर भावविभोर महसूस करे, गौरवान्वित महसूस करे? ऐसा क्या किया है आखिर नरेंद्र मोदी ने? क्या जनता के दोषों को सामने लाने, उन्हें सांप्रादायिक हिंसा की बहस में उलझाने के लिए वे महान हैं? क्यों आखिर आम जनता नौकर बनकर उनकी सेवा करने के लिए उनसे फरियाद करने वाले एक फरियादी के लिए अपने एक वक्त का, दो वक्त खाना, अपनी जरूरतों के लिए बहुत मुश्किल से जुटाई एक धनराशि उसे दे दे? आखिर क्यों एक फरियादी नौकर के सामने राजा जनता (लोकतंत्र के आधार पर हर आम आदमी राजा है) खुद को कमतर माने और उससे मिलने में सम्मान अनुभव करने के लिए मुश्किल से जुटाया धन भी खर्च करने में न चूके?
इसी प्लेटफॉर्म पर हमने 1975 के ‘सत्याग्रह’ और आज के ‘स्वराज’ क्रांति के आलोक में राजनीति में बदलाव की सूचना का आशय व्यक्त किया था. भाजपा को एक बार फिर लोकतंत्र का आशय, लोकतंत्र की नीयत समझने की जरूरत है. लोकतंत्र किसी व्यक्ति-विशेष का महिमामंडन नहीं करता. व्यक्तियों की समूह शक्ति से बनी एक व्यवस्था है लोकतंत्र जिसमें सत्ता के केंद्र में रहने वाले राजनयिक आम आदमी का मात्र एक आम हिस्सा होते हैं न कि खास. पिछले दशकों में भारतीय लोकतंत्र में इसे भुला दिया. ‘आप’ की आंतरिक राजनीतिक मंशा के विषय में अभी कुछ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता लेकिन बाह्य तौर पर इसने इस शक्ति को पुन: जगाने का कार्य अवश्य किया है. ऐसे माहौल में ‘आप’ की जननीति की तुलना में भाजपा की परंपरागत ‘व्यक्तिपरक’ (आज की मोदी-राजनीति) कहीं से आदर्श राजनीति नहीं कही जा सकती. पर इसके पीछे के कारण क्या हैं यह केवल भाजपा की आंतरिक इकाई ही बता सकती है. बाह्य तौर पर यह ‘आप’ की सफलता से झुंझलाई हुई जान पड़ रही है जो शायद अपनी जीत की राह में ‘आप’ द्वारा रोड़ा अटकाए जाने से झुंझलाकर ‘कुछ भी करो’ जीतना तो आखिर हमें ही है, ‘हमारी नीति श्रेष्ठ नीति’ मानकर चलना चाहती है.
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