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भीष्म पितामह की भूमिका से इनकार नहीं कर सकते

मौके की नजाकत को भांपना और उसपर काम करना कई बड़े हित साधने का एक अचूक नुस्खा साबित हो सकता है. खासकर राजनीति में इस मौके की नजाकत को अनदेखी करना हर प्रकार से अहितकारी हो सकता है. एक प्रकार से शह और मात की राजनीति में विरोधी का हर कमजोर पक्ष विरोधियों के लिए ‘अवसर’ के समान है. उसे चूकना भले ही उसकी मात का कारण बने लेकिन उससे भी ज्यादा उसपर अपने दांव न लगाना सबसे बड़ी हार का कारण बन सकती है. मतलब अगर अवसर पर लगाया दांव असफल हो गया तो आगे और भी अवसर मिलने के आसार होंगे लेकिन जिसने इस मौके की नजाकत या अवसर को चूका इसका सीधा अर्थ है कि वह राजनीति के इस खेल से हमेशा के लिए बाहर हो जाएगा. प्रत्यक्ष न सही पर परोक्ष रूप से यह राजनीति का कड़वा लेकिन सबसे बड़ा सत्य है.


Bharatiya Janata Partyएक बार फिर नरेंद्र मोदी और लाल कृष्ण आडवाणी में भाजपा की धुरी कोई और ही रुख बदलती नजर आ रही है इसमें प्राथमिकताओं में कहीं पीछे धकेल दिए गए लालकृष्ण आडवाणी का एक बार फिर प्राथमिक भूमिका में आने के संकेत मिल रहे हैं. गांधीनगर से लालकृष्णआडवाणी के चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ ही इसपर चर्चाओं का बाजार गर्म है. हालांकि भाजपा नरेंद्र मोदी की पीएम पद उम्मीदवारी के प्रति अब भी प्रतिबद्धता जता रही है लेकिन चार राज्यों में विधानसभा चुनाव के परिणामों में मोदी की दहाड़ का प्रभाव आंकने के बाद आडवाणी की यह घोषणा कई मायनों में महत्वपूर्ण है.


बात हो रही थी संभावनाओं और अवसरों की. आज का राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा है कि लोकसभा चुनाव नजदीक हैं और भाजपा-कांग्रेस की आमने-सामने की लड़ाई में ‘आप’ नाम का एक अनचाहा छौंक लग पड़ा है. हालांकि लोकसभा चुनावों में आप की किसी मुख्य भूमिका में आने की संभावनाएं अभी कम ही हैं लेकिन किसी भी प्रकार यह स्थिति कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के लिए संकट भरा है.


लंबे समय तक एक ही चीज लोगों को ऊबन देती है और वे उससे बाहर निकलने की कोशिश करते हुए कुछ नया तलाशने लगते हैं. आज की भारतीय राजनीति का लोकतंत्र भी उसी ऊबन की स्थिति से गुजर रहा है. 10 सालों तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस की सरकार से आज महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दों समेत जनता को कई शिकायतें हैं. आज की जागरुक जनता के बीच इतने लंबे वक्त तक लगातार शासन में रहने के बाद इन शिकायतों के साथ कांग्रेस का जाना तो लगभग तय ही मालूम पड़ रहा है. अगर कांग्रेस सरकार में आती है तो इसके लिए भी यह किसी चमत्कार से कम नहीं लेकिन भाजपा के लिए यह स्थिति कुछ ऐसी है कि कांग्रेस की यह कमजोर स्थिति सरकार बनाने में उसके लिए एक संभावना का द्वार है, एक अवसर है, जिसे उपयोग न करना उसके लिए खतरनाक हो सकता है.

छींटाकशी का दौर शुरू हो चुका है


इतने आरोपों के साथ कांग्रेस के लिए अगर यह अगले लोकसभा चुनावों में सरकार से बाहर होने का प्रश्न है तो भाजपा के लिए यह समय दोधारी तलवार से कम नहीं. एक तरफ उसकी पार्टी का अंदरूनी कलह है, एक सशक्त राजनीतिक चेहरे की कमी है (जिसे वह नरेंद्र मोदी की हिंदुत्ववादी छवि को सामने लाकर पूरी करने की कोशिश कर रही है), दूसरी तरफ यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस की इतनी कमजोर स्थिति का लाभ भी अगर भाजपा नहीं ले पाती और लोकसभा चुनाव अपने पक्ष में नहीं कर पाती है तो इसके लिए यह एक शर्मनाक स्थिति तो होगी लेकिन इससे भी बड़ी यह वह स्थिति होगी जो अगले कम से कम एक दशक तक तो लोकसभा चुनावों में भाजपा को सरकार बनाने की संभावनाओं से भी बहुत दूर कर देगी. इसका एक बड़ा कारण यह है कि एक बार अगर कांग्रेस अपनी इस कमजोर स्थिति को पार कर तीसरी बार सत्ता में आती है तो भ्रष्टाचार और महंगाई की अपनी छवि को साफ करने में कोई कोर-कसर छोड़ेगी. जाहिर है कांग्रेस के साथ एक स्थिर सरकार देने की छवि पहले ही जुड़ी हुई है. जाहिर है अगर वह महंगाई और भ्रष्टाचार की छवि से खुद को साफ दिखाने में कामयाब हो गई तो आम जनता भी उसका साथ नहीं छोड़ेगी. इसलिए भाजपा के लिए यह वह समय है जब वह कांग्रेस की डूबती हुई लुटिया का फायदा उठाते हुए अपनी स्थिति मजबूत करे अन्यथा एक दशक के लिए डूब जाए.


भाजपा इस स्थिति को भलीभांति समझती है. शायद इसीलिए बहुत ही सधे कदमों के साथ इसने नरेंद्र मोदी का शस्त्र चुनावी मैदान में उतार दिया है. यहां नरेंद्र मोदी के साथ ‘सधे कदमों’ को जोड़ना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि हिंदुत्ववादी और अल्पसंख्यक मुस्लिम विरोधी है. भाजपा के लिए यही छवि फायदेमंद है और यही छवि उसे नुकसान भी पहुंचा सकती है. इसलिए जब से नरेंद्र मोदी ‘पीएम इन वेटिंग’ घोषित हुए हैं, हिंदुत्व और राम-मंदिर निर्माण से अलग वे ‘मुस्लिम समता’ की छवि बनाते नजर आ रहे थे.


सितंबर में जब नरेंद्र मोदी ‘पीएम इन वेटिंग’ घोषित हुए तो कई राजनीतिक समालोचकों का मानना था कि भाजपा ने जल्दी कर दी. उनका तर्क था कि कांग्रेस की तरह भाजपा को भी अभी इंतजार करना चाहिए था. वह जो दृश्य था लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी की मुख्य रणनीति से बाहर रखने की लग रही थी. अब कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों में मोदी की भूमिका बहुत मजबूत नहीं दिखने के बाद यह रणनीति बदली हुई दिखने लगी है और लालकृष्ण आडवाणी अब वापस भाजपा की प्राथमिकताओं में आने को संभावित दिख रहे हैं. समूल स्थिति की विवेचना की जाए तो यह साफ समझ आता है कि यह सब भाजपा की चुनावी रणनीतियों में पहले से शामिल था. विधानसभा चुनावों से पहले ही मोदी को ‘पीएम इन वेटिंग’ घोषित करना इसका तुरूप का पत्ता नहीं था बल्कि इस तरह इन चुनावों में वह मोदी की हिंदुत्ववादी ताकत का वास्तविक आंकलन कर आगे की रणनीति बनाना था. मोदी लगातार चार बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने हैं. यहां तक कि गोधरा दंगों के आक्षेपों के साथ भी अपनी इस स्थिति को संभाले रखने में वे कामयाब रहे हैं तो बिना परखे उनमें संभावनों से भाजपा इनकार नहीं कर सकती थी और जल्दबाजी में कोई फैसला कर कांग्रेस की कमजोरी के इस सुनहरे अवसर को उपयोग करने में कोई कमी भी नहीं छोड़ना चाहती थी. इसलिए अब जब मोदी का आंकलन हो गया है तो आडवाणी एक बार फिर पार्टी की मुख्य चुनावी रणनीतियों में शामिल होते नजर आ रहे हैं.


एक प्रकार से भाजपा के लिए यह अग्निपरीक्षा की घड़ी है जिसमें आर या पार की स्थिति में वह या तो इस लोकसभा चुनाव को जीतकर 10 सालों बाद केंद्र में सरकार बनाने में सक्षम होगी और अगली पारी के लिए अपनी सरकार के लिए संभावनाएं तलाशेगी या यह चुनाव हारकर एक दशक के लिए केंद्र की कुर्सी से बहुत पीछे धकेल दी जाएगी. इसलिए इस अग्निपरीक्षा के लिए हर कदम भाजपा फूंक-फूंक कर रख रही है और इसके केंद्र में भीष्म पितामह (आडवाणी) की भूमिका से इनकार नहीं कर सकते.

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इस चेतावनी का अर्थ क्या है?

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