मुद्दा किसी कानून और विधेयक से बढ़कर है. जो दिखता है अक्सर वह होता नहीं, लेकिन जो होता है उसके सापेक्ष कई बातें होती हैं. 2 साल पहले जिस लोकपाल की रूपरेखा के साथ आधुनिक गांधी (अन्ना हजारे) का महिमामंडित अभ्युदय हुआ वह एक बार फिर सुर्खियों में हैं. पिछली बार इस गांधी की छत्रछाया में आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के रूप में जनता को वोट में विकल्प मिला. अन्ना हजारे एक बार फिर अनशन पर गए. इस बार उनके अनशन के प्रति सरकार बड़ी गंभीर दिखी तो भूख हड़ताल से अन्ना के हिफाजत की गारंटी पहले ही मिल गई थी. हां, इस बार अन्ना के साथ किरण बेदी भी भूख हड़ताल में उनके साथ थीं यह नजारा थोड़ा हट के था. देखना यह था कि इस बार अन्ना के अनशन से नया क्या आता है.
पिछली बार जन लोकपाल विधेयक पर आंदोलन में एक साथ रहे अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल इस बार साथ नहीं थे वह और बात है, लेकिन इससे भी बड़ी बात कि साथ-साथ इस मुद्दे को एक बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बनाने वाली यह जोड़ी इस बार इसी मुद्दे पर विपरीत ध्रुवों पर नजर आई. अन्ना का आंदोलन लोकपाल विधेयक के लिए तैयार सरकारी मसौदे पर था. केजरीवाल समेत पूरे देश ने इस पर उनका साथ दिया. अन्ना और उनकी टीम जिसमें अरविंद केजरीवाल मुख्य भूमिका में थे, का कहना था कि लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार मिटाने और सरकारी तौर पर पारदर्शिता लाने का जरिया कम लेकिन इसमें उल्लेखित प्रावधान भ्रष्टाचार पर लीपापोती का काम करेंगे और भ्रष्टाचार और भी ज्यादा बढ़ेंगे. सरकारी लोकपाल के बदले जन लोकपाल लाने का मुद्दा अन्ना का देशव्यापी जन-आंदोलन बन गया लेकिन अब जब परिणाम आए हैं तो आश्चर्य यह है कि जिस उद्देश्य के लिए आंदोलन था वह तो यूं भी पूरा नहीं हुआ. दृश्य कुछ बदले-बदले जरूर हैं जिनमें लोकपाल के प्रारूप पर केजरीवाल के साथ कांग्रेस का जोरदार विरोध दर्ज कराने वाले अन्ना हजारे आज केजरीवाल के बिना अकेले हैं और इस बार कांग्रेस की खिलाफत की बजाय उसकी तारीफें और युवराज गांधी (राहुल गांधी) की तारीफें कर रहे हैं.
एक दृश्य राज्यसभा से पारित होकर लोकसभा में लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक के पास होने का है और दूसरा दृश्य अन्ना के इस विधेयक के पारित होने पर राय की है. राज्यसभा से पारित होने के बाद कई संशोधन होने के कारण इसे वापस लोकसभा भेजा गया और सपा के अलावे सभी दलों ने वहां भी ध्वनि मत से इसे पारित कर दिया. मुलायम सिंह यादव भले ही खुलेआम जनप्रतिनिधियों को जनतंत्र में सर्वोच्च बता दें और किसी हवलदार द्वारा नेता की जांच को उनके शान के खिलाफ बताकर अपनी कूपमंडूकता का परिचय दें लेकिन बाकी दल यह भली भांति समझते हैं कि जनतंत्र में जनप्रतिनिधियों की क्या हैसियत है और यह भी जानते हैं कि इस हैसियत से जनता को कैसे भरमाना है. बुद्धिमानी दिखाते हुए भाजपा और कांग्रेस ने लोकपाल विधेयक पर एक-दूसरे से समझौता कर लिया. कांग्रेस के लिए जहां लोकपाल बिल पास कराना अपने भ्रष्टाचारी दिख रहे चरित्र पर ईमानदार छवि का मुखौटा लगाने की कोशिश है वहीं भाजपा भी इसे पारित करवाकर जनता की सेवा में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के प्रति अपनी कड़े रुख को जनता के बीच साफ करना चाहती है. आखिर सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं, उन्हें पता है कि ये जो आनेवाला है वह उनके लिए भी संकट की स्थिति है. दुश्मन के दुश्मन से दोस्ती राजनीति की नीति है.
लोकसभा चुनाव नजदीक हैं और कोई भी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ उबलते माहौल में अपने लिए रिस्क नहीं लेना चाहती. जिन दो मुद्दों पर संशोधन के लिए भाजपा अड़ी हुई थी उस पर अचानक उसने अपना रुख नर्म कर लिया. सरकार एक संशोधन के लिए तैयार थी और भाजपा का कहना था कि अगर सरकार एक संशोधन लाती है तो दूसरे पर वह अपनी जिद छोड़ देगी. हुआ भी यही और लोकपाल बिल पारित हो गया.
अब इसका श्रेय हर किसी को चाहिए. श्रेय लेने के माहौल पहले से ही बन रहे थे. गौरतलब है कि 2012 में अनशन समाप्त होने के बाद अन्ना ने कहा था कि अगर यूपीए सरकार ने जल्द ही लोकपाल बिल पारित नहीं कराया तो वह अगले चुनावों में कांग्रेस के विरुद्ध हर राज्य में प्रचार करेंगे. हालांकि अब तक विधानसभा चुनावों में ऐसा कोई माहौल दिखा तो नहीं लेकिन लोकसभा चुनावों से पहले यह मांग पूरी हो गई और इस बार ये छोटे गांधी (अन्ना हजारे) इसका श्रेय युवराज गांधी (राहुल गांधी) को दे रहे हैं. लोकसभा चुनावों में अपनी किरकिरी होने के बाद लोकपाल बिल पारित होने से ठीक पहले राहुल गांधी मुख्य भूमिका में नजर आने लगे. अन्ना का लोकपाल बिल को पारित कराने के लिए राहुल गांधी को लिखे खत और राहुल गांधी का अन्ना की चिंता दिखाते भ्रष्टाचार पर भी अपना कड़ा रवैया स्पष्ट करते हुए, लोकपाल बिल को पारित कराने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए जवाबी खत लिखना मीडिया द्वारा महिमामंडित किया जाता रहा. एक बार फिर नेपथ्य से उठकर कांग्रेस की पृष्ठभूमि राहुल गांधी के आसपास खड़ी नजर आने लगी और राहुल गांधी भ्रष्टाचारी सिस्टम में आम जनों के मसीहा.
विधेयक के पारित होते ही अन्ना हजारे राहुल गांधी और कांग्रेस को धन्यवाद करते थकते नहीं नजर आए. उधर भाजपा ने इसका श्रेय अन्ना को देते हुए अन्ना नाम के मीठे गन्ने का स्वाद अपने साथ भी जोड़ने की कोशिश की. इस सबमें जो अलग खड़े नजर आए वे थे ‘आप’ के संयोजक और दिल्ली के नए दबंग पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल. अरविंद केजरीवाल ने सीधे-सीधे अन्ना पर प्रहार कर दिया कि वे सरकारी झांसे में आ रहे हैं और इससे एक चूहा भी जेल नहीं जाएगा. हालांकि अन्ना ने भी इसका जवाब दिया लेकिन सोचने वाली बात है कि आखिर क्यों केजरीवाल इसके विरोध में हैं? अगर अन्ना यह कह रहे हैं कि पहले विधेयक का पास होना जरूरी है, बाद में इसमें संशोधन के लिए आंदोलन किए जा सकते हैं तो केजरीवाल को आपत्ति क्यों?
आपत्ति होना जायज है. जनता के बीच केजरीवाल का सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार और इसे खत्म करने के लिए उनकी सरकार के आने के बाद जन लोकपाल बिल लाना है. दिल्ली चुनाव भले ही पूरी तरह ‘आप’ के पक्ष में न रहा हो लेकिन अपनी सशक्त उपस्थिति इसने दर्ज करा दी है. आज सरकार बनाने के लिए आनाकानी कर रही और संशय की स्थिति का बयान कर रही ‘आप’ और केजरीवाल भले ही इसका कारण भ्रष्टाचारी कांग्रेस के साथ सरकार न चला पाना बता रहे हों लेकिन शायद एक वजह यह भी है कि उनका लक्ष्य दिल्ली रहा ही नहीं. शुरू से ही केजरीवाल यह कहते रहे कि उनकी सरकार आते ही वे लोकपाल बिल पास कराएंगे लेकिन इसे पारित कराना राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं. इसके लिए उन्हें केंद्र की सत्ता चाहिए. मतलब जनता को एक संदेश देना कि अगर भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए तो आप ‘आप (आम आदमी पार्टी)’ को केंद्र में लाओ. इसलिए हो सकता है दिल्ली केजरीवाल की मंजिल न हो, उनका लक्ष्य इसमें मात्र एक उपस्थिति दर्ज कराकर राष्ट्रीय नजर में आना और लोकसभा चुनाव में मजबूत पारी खेलना हो. इसलिए अगर लोकपाल बिल पारित हुआ है तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एकमात्र केजरीवाल के लिए संकट की स्थिति है. हालांकि इसके प्रारूप को लेकर मुद्दे अभी भी उनके पास हैं. पर बात इतनी है कि इस लॉलीपॉप से हर किसी को अपना मुंह मीठा करना है.
Political Parties Stand On Lokpal Bill
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