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अब केवल ‘राजमाता’ ही इनका उद्धार कर सकती हैं

अचानक राजनीति की धुरी एकदम बदली-बदली नजर आ रही है. मुख्य पात्रों में बदलाव आ गया है. यह न ‘आप’ का असर है, न राजनीति की अनिश्चितता की झलक है. संभावित नतीजों का एक निश्चित परिणाम है. अभी 5 दिन पहले तक ऐसा लग रहा था कि अगला लोकसभा का चुनाव ‘कांग्रेस और बीजेपी’ के बीच नहीं बल्कि ‘नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी’ के बीच होने वाला है. हर जगह बस ‘मोदी और मोदी’ या ‘राहुल और राहुल’ की ही चर्चा थी. ‘राहुल बनाम मोदी’ या ‘मोदी बनाम राहुल’ के अलावे लोकसभा चुनाव 2014 की रूपरेखा में किसी और की चर्चा बेमानी सी लग रही थी. चर्चा के केंद्र में अधिकांशत: ‘मोदी की जीत और राहुल की हार’ या ‘राहुल की जीत और मोदी की हार’ ही था. इनके नाम के साथ बीजेपी और कांग्रेस नेपथ्य में दिखते थे. आज परिदृश्य दूसरा है. बीजेपी और कांग्रेस भी चर्चा में हैं और चर्चा के केंद्र में चेहरे भी बदल गए हैं.


चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद देश की दो मुख्य बड़ी पार्टियां, सत्तापक्ष की कांग्रेस और विपक्ष की भाजपा दोनों की रणनीतियां बदली-बदली लगने लगी हैं. कांग्रेस को इतना बड़ा झटका लगा कि कांग्रेस में राजीव गांधी की जगह लेने का सपना देख रहे जूनियर गांधी (राहुल गांधी) के तो जैसे परखच्चे ही उड़ गए. राहुल को जितना बोलना था उन्होंने इस चुनाव से पहले ही बोला. अब तो हर जगह वे मम्मी (सोनिया गांधी) के पीछे खड़े ही नजर आ रहे हैं. यह एक बड़ा बदलाव है.


sonia gandhi2014 के लोकसभा चुनावों की धमक जब से महसूस होने लगी, कांग्रेस की ओर से इस बार सोनिया गांधी से ज्यादा चर्चा राहुल गांधी की हो रही थी. हर जगह बस ये जूनियर गांधी ‘राहुल’ ही नजर आ रहे थे. बिना किसी पूर्व आहट के राहुल गांधी जिस उत्साह और ऊर्जा के साथ अचानक इस पृष्ठभूमि (कांग्रेस के लिए 2014 का लोकसभा चुनाव) के मुख्य पात्र बने इसकी धमक हर किसी ने सुनी. बीजेपी के लिए शायद राहुल ही वह बड़ा कारण थे जिसके मुकाबले प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर उन्हें नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा करनी पड़ी. राहुल की पद यात्राएं, आम लोगों को लुभाने की कला जहां राजीव गांधी की तरह जनता के दिलों में छाप छोड़ जाने और उन्हें अपने पक्ष में कर लेने का हौसला कांग्रेस को दिला रहा था, वहीं बीजेपी को उनका यही हौसला डरा रहा था. इसने एक ऐसा माहौल बनाया कि भाजपा के ‘पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी’ के हर भाषण में शहजादे (राहुल) का उल्लेख अवश्य होता था. बीजेपी खेमे में नरेंद्र मोदी के मुख्य चेहरा बनने के बाद कमोवेश कांग्रेस के लिए भी कुछ ऐसी ही स्थिति बन गई थी और उनके चुनावी भाषणों में भी नरेंद्र मोदी उल्लेखित होने लगे. मोदी और राहुल के इर्द-गिर्द ही सिमटा यह दृश्य अचानक चार राज्यों में विधानसभा चुनावों के झटके के साथ बिखर गया, और साथ ही पात्रों की भूमिकाएं भी बदल गईं लग रही हैं.

बादशाहत के लिए प्यादे की कुर्बानी

कांग्रेस के लिए यूं तो चारों राज्य ही झटके देने वाले सबित हुए लेकिन दिल्ली इनके लिए सबसे बड़ा झटका था. यह इनके भूकंप का अधिकेंद्र बन गया क्योंकि शीला दीक्षित के दिल्ली के लिए किए सारे कामों को भुलाकर अगर जनता ने इन्हें नकार दिया मतलब आगामी लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस लाख जन-लुभावनी योजनाएं ले आए इसकी जीत की संभावनाएं कहीं बिखरती नजर आती हैं. दो दिन पहले कांग्रेस के सम्मानित विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद का बयान आया कि सोनिया सिर्फ कांग्रेस की नहीं पूरे देश की मां हैं. इससे पहले इनके एक वरिष्ठ कार्यकर्ता मणिशंकर अय्यर का बयान आया कि कांग्रेस का मनमोहन के रूप में नेतृत्व चुनाव गलत था. इन बयानों में कहीं न कहीं परोक्ष रूप से सोनिया गांधी की चर्चा है पर राहुल गांधी कहीं नहीं हैं.


विधानसभा नतीजों के बाद भी कांग्रेस के जो भी बयान आए उसमें सोनिया गांधी ही थीं, राहुल बस कहीं सोनिया के साथ खड़े नजर आ रहे थे जैसे शुरुआती दिनों में युवा कांग्रेस में आने से पहले होते थे. जबकि इसके ठीक उलट विधिवत रूप से कांग्रेस से जुड़ने के बाद पार्टी की हर गतिविधि में कहीं न कहीं राहुल का नाम सबसे प्रमुख होता था. किसी न किसी रूप में राहुल कांग्रेस का सबसे प्रमुख व्यक्तित्व नजर आ रहे थे. यहां तक कि दागी विधायकों, मंत्रियों की सदस्यता खत्म होने से बचाने के लिए लाए अध्यादेश पर ‘इसे बकवास बताकर फाड़कर फेंक देने’ तक का बयान दे दिया और कांग्रेस ने इस अध्यादेश को वापस लेकर राहुल को प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व से ज्यादा महत्व दिया. इस अध्यादेश से लेकर राहुल के हर बयान पर कांग्रेस उनके साथ मजबूती से खड़ी नजर आई. यहां तक कि किसी चुनावी रैली में ‘पिता और दादी की हत्या’ का उल्लेख किए जाने पर विपक्ष और मीडिया द्वारा राहुल का मजाक बनने के बावजूद सोनिया और कांग्रेस इसे मजबूती देकर उनके साथ थे. ये घटनाएं पार्टी में राहुल की मुख्य भूमिका बयां कर रहे थे. लेकिन अब यह भूमिका बदलकर वापस सोनिया गांधी के आसपास घूमने लगी है.


चार राज्यों में इन विधानसभा चुनावों से पहले शायद कांग्रेस को यकीन था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी उनके उद्धारक बनेंगे क्योंकि भ्रष्टाचार और महंगाई के आरोपों के साथ ही अपने कार्यकर्ताओं द्वारा तीखे तेवर अपनाए जाने के विरोध में उनके खिलाफ बन रहे हवा के रुख को पार्टी समझ रही थी. राहुल की लीपापोती और भावनात्मक बातों से उसे लगा वह जनता को मूर्ख बनाकर अपनी ओर कर लेगी. पर कांग्रेस का यह पत्ता फिसड्डी साबित हुआ. खासकर दिल्ली के सबक के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों ही शायद चौकन्ने हो गए हैं. यही कारण है भाजपा भी समझ गई है कि मोदी का जादू जनता की समझ को धोखा नहीं दे सकती और वह दिल्ली में अल्पमत सरकार बनाकर इसके कारण केंद्र की सत्ता की राह में मुश्किलें खड़ी नहीं करना चाहती. कांग्रेस भी अब वापस जूनियर गांधी को नेपथ्य में छोड़कर एक बार फिर सोनिया गांधी के कंधे पर सवार हो रही है. कांग्रेस ने अब तक 2014 के विधानसभा चुनावों के लिए प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के नाम की सीधे-सीधे घोषणा नहीं की थी. अब तक यह अघोषित रूप से राहुल गांधी था लेकिन अब यह सोनिया गांधी हो गया है. क्योंकि कांग्रेस को भी पता है कि सोनिया ने जिस संकट से उभारकर उन्हें वापस सत्ता का सुख दिया था, इस संकट की घड़ी में अब केवल यही ब्रह्मास्त्र उनका उद्धार कर सकता है.

Assembly Elections 2014 And Sonia Gandhi In Congress

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