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हिंदू विरोधी है सांप्रदायिक हिंसा कानून विधेयक?

यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के आखिरी दो संसद सत्र इसके लिए काफी महत्वपूर्ण और विवादित रहे हैं. विवादों के कई कारण हो सकते हैं लेकिन इनके केंद्र में चुनाव और इसी चुनावी धुरी पर घूमते विधेयक को पास करवाना मुख्य मुद्दा माना जा सकता है. पिछले मानसून सत्र में खाद्य बिल और भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करवाना तब यूपीए सरकार की अच्छी-खासी फजीहत बन गई थी. अब इस कार्यकाल के आखिरी संसद सत्र (शीतकालीन संसद सत्र) में एक बार फिर सरकार एक नए विवादित विधेयक के साथ आ रही है. फर्क विवादों से नहीं पड़ता, न विधेयक पास कराने से लेकिन इसकी मंशा और आम-हित से जुड़े इन फैसलों को आनन-फानन में पारित कराने की जुगत चुनावी दौड़ में किसी पार्टी के पक्ष-विपक्ष में हो सकती है लेकिन यह आनन-फानन आम जन के हितों पर भारी पड़ सकता है.


गुरुवार 5 दिसंबर को संसद सत्र शुरू होते ही ‘सांप्रदायिक हिंसा कानून विधेयक’ पर बहस शुरू हो गई है. हालांकि अब तक यह विधेयक संसद में पेश नहीं किया गया है और पेश करने की तिथि भी तय नहीं है लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि खाद्य बिल और भूमि अधिग्रहण विधेयक की तरह इसे भी यूपीए सरकार इस सत्र में हर हाल में पारित करवाना चाहती है क्योंकि यह इस सरकार का आखिरी संसद सत्र है और इसके ठीक बाद लोकसभा चुनाव है. खाद्य बिल और भूमि अधिग्रहण बिल भी इसी तरह तरह संसद में पारित करवाया गया था. आनन-फानन में विधेयक लाकर अध्यादेश लागू कर पारित करा दिया गया. जैसा कि पहले ही स्थिति साफ थी कांग्रेस ने इसका लाभ विधानसभा चुनावों में लेने की पूरी कोशिश की. लोकसभा चुनावों के ठीक पहले इस शीतकालीन सत्र में एक बार इस ‘सांप्रदायिक हिंसा कानून विधेयक’ को इसी प्रकार पारित किए जाने की आशंका मालूम हो रही है क्योंकि विधेयक के आने से पहले ही इस पर विरोध के स्वर उठने लगे हैं.


क्या है सांप्रदायिक हिंसा कानून?

सांप्रदायिक हिंसा कानून ‘सांप्रदायिक दंगों’ को नियंत्रित करने के लिए राज्य और केंद्र सरकार के लिए तैयार की गई नियमावली है. इसके अंतर्गत अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक वर्ग में हिंसा (दंगे) की स्थिति में इस पर काबू पाने और इसे नियंत्रित करने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों के अलावे इसकी सहभागी इकाईयों पुलिस, न्यायिक व्यवस्था के लिए नियमावली हैं.


गौरतलब है कि विधेयक के आने से पहले ही इससे सहमति और विरोध के स्वर उठने लगे हैं. भाजपा के पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी ने साफ शब्दों में इस कानून को लाए जाने का विरोध किया है. तो सपा जैसी कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं जो संशोधन के साथ विधेयक को समर्थन देने की बात करती हैं. लेकिन इस दिशा में विधेयक की कुछ खास बातें गौर करने लायक हैं:


सांप्रदायिक हिंसा कानून विधेयक केंद्र और राज्य सरकारों को यह जिम्मेदारी देता है कि वे अनुसूचित जातियों, जनजातियों, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को लक्षित कर की गई हिंसा रोकने के लिए पूरी तरह अपनी ताकत का प्रयोग करें.


-इस कानून की विशेषता यह है कि इसमें हिंसा को पारिभाषित करने के साथ ही सरकारी कर्मचारियों द्वारा उनके कर्तव्यों की अवहेलना की स्थिति में उनके लिए दंड की स्थिति का प्रावधान किया गया है. मतलब विशेष स्थिति में यह सरकारी अधिकारियों को दंगा रोकने में ढिलाई बरतने पर दंडित भी करता है.

विधेयक पर सवाल क्यों?

इस सांप्रदायिक हिंसा कानून विधेयक की कुछ धाराएं अत्यंत ही विवादित हैं. जैसे;


-इस विधेयक की धारा 7 सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति में बहुसंख्यक समुदाय की किसी महिला के साथ अल्पसंख्यक समुदाय के किसी पुरुष द्वारा अगर बलात्कार किया जाता है तो वह अपराध की श्रेणी में नहीं रखता है. गौरतलब है कि भारतीय संविधान की इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) के तहत यह बलात्कार अपराध जरूर होगा लेकिन यह हिंसा कानून इस जगह इसे अपराध की श्रेणी से हटा देता है.


-इसका एक और विवादित हिस्सा है विधेयक की धारा 8 की नियमावली. इस धारा में किसी ‘समूह’ या ‘समूह से संबंध रखने वाले’ व्यक्ति के खिलाफ अगर कोई घृणा फैलाता है तो उसे अपराध की श्रेणी में रखते हुए उस पर कार्रवाई की जाएगी जबकि अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यकों के विरुद्ध घृणा फैलाने की स्थिति का इस कानून में कोई उल्लेख नहीं है. गौरतलब है कि सांप्रदायिक हिंसा कानून ‘समूह’ शब्द अल्पसंख्यकों के लिए प्रयोग करता है.


इस प्रकार इस कानून के साथ विवाद जुड़ता है यह सांप्रदायिक हिंसा में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के नाम बहुसंख्यकों के अधिकारों का हनन करती है. इस कानून में अल्पसंख्यकों को ‘समूह’ से संबोधित किया गया है लेकिन इन अल्पसंख्यकों में मुस्लिम और पिछड़ी जातियां, जनजातियां आती हैं. बहुसंख्यकों में हिंदू संप्रदाय आता है. यहां यह गौर करने वाली बात है:


– सांप्रादियक हिंसा जरूरी नहीं कि हमेशा हिंदू बहुल इलाके में ही हो. अगर मुस्लिम बहुल इलाकों में सांप्रदायिक हिंसा भड़कती है तो जाहिर है हिंदुओं की सुरक्षा पर यह आघात करेगा ही. इस कानून की छाया में अल्पसंख्यक बहुल संप्रदाय बेधड़क हिंसा करेगा. इस प्रकार दो संप्रदायों के बीच भले ही तनाव न हो, लेकिन यह कानून ह्यूमन राइट्स के आधार पर इन्हें पहले ही बांट देता है.


-इंसाफ और मानव अधिकारों की दृष्टि से इस कानून के नाम पर अल्पसंख्यकों को कमजोर मानकर बहुसंख्यकों पर हिंसा का अधिकार देता है. इसमें स्त्री हितों का भी ध्यान नहीं रखा गया है. पहला तो सांप्रदायिक हिंसा के संबंध में अल्पसंख्यक की परिभाषा ही गलत दी गई है. इस तरह की हिंसा में अगर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की बात आती भी है तो वह कुल जनसंख्या में धर्म और जाति विशेष की जनसंख्या को आधार बनाकर पारिभाषित नहीं की जा सकती. यहां स्थान विशेष पर किसी समुदाय की संख्या को ध्यान में रखकर इसे पारिभाषित किया जाना चाहिए. और किसी भी आधार पर, किसी भी स्थिति में स्त्री के साथ बलात्कार करने का अधिकार आखिर कैसे दिया जा सकता है? चाहे वह किसी भी समूह का व्यक्ति हो, कैसी भी स्थिति हो किसी कानून में स्त्री से बलात्कार को अपराधरहित कैसे किया जा सकता है?


हालांकि इसका एक पक्ष यह भी है कि अगर सही दिशा में इस कानून को लाया जाए तो यह सांप्रदायिक हिंसा को रोकने, सामान्य सांप्रदायिक झगड़ों को गोधरा दंगे और मुजफफनगर दंगों जैसी स्थिति बनने से रोकने में कारगर हो सकता है. लेकिन इसके लिए जरूरी है इसे लाने की भावना आम-हित ही हो, चुनावी लाभ नहीं.


तमाम तरह की विषमताओं के साथ इस कानून पर प्रश्नचिह्न लगना लाजिमी है. विशेषकर इसमें तय ‘अल्पसंख्यक’ और ‘समूह’ की श्रेणियां और सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति में ‘समूह’ द्वारा ‘बहुसंख्यक’ से संबंध स्त्रियों के साथ बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं रखना किसी भी स्थिति में मान्य नहीं हो सकता. साफ संकेत हैं कि यह आम हित में लाया गया कोई कानून न होकर चुनावी रणनीति का एक हिस्सा है. अल्पसंख्यकों को लुभाने का कांग्रेस का तुरुप का पत्ता है.


हालांकि बीजेपी ने पहले ही इस पर विरोध के साफ स्वर जाहिर कर दिए हैं. लेकिन कई पार्टियां इसके समर्थन में भी हैं. आम राय है कि विधेयक को आनन-फानन में लाकर पारित किए जाने की बजाय इस पर आम सहमति बनाने की कोशिश हो. एक हद तक यह सही हो सकता है. लेकिन इस सांप्रदायिक विधेयक कानून की विवादित धाराओं, विशेषकर धारा 7 और 8 के साथ किसी भी स्थिति में यह मान्य नहीं किया जाना चाहिए. कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियां जो मुस्लिम वोटों को लुभाने की हर कोशिश में रहती हैं जरूर इस पर अलग-अलग राय देकर येन-केन-प्रकरेण, हल हाल में इसे पारित करवाना चाहेंगी. लेकिन चुनावी पत्तों का यह खेल जितना आम बहुसंख्यक जनता के लिए खतरनाक है, हो सकता है यूपीए सरकार के लिए यह पत्ता उल्टा ही पड़ जाए. अब तक खाद्य विधेयक और भूमि अधिग्रहण बिल दिखाकर भारत की बहुसंख्यक ग्रामीण वोट कांग्रेस अगर लेने की उम्मीद करती है तो वर्तमान रूप में सांप्रदायिक हिंसा कानून के पारित होने की स्थिति में बहुसंख्य वोटों की राजनीति उसके विपरीत भी जा सकती है.

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