विवादों के मंत्री की चाल-ढ़ाल, वेश भूषा की बातें न कर सीधे उनके कृतित्व से संबंधित व्यक्तित्व प्रभाव पर बात करते हैं. प्रभावित करने वाली शैली और बड़ी भीड़ को अपनी ओर आकर्षित कर सकना ही उनकी विशेषता मानी जाती है. बावजूद इसके बड़ी बात यह है कि जिस भीड़ को वे आकर्षित कर पा रहे हैं उसकी गति और उसका व्यक्तित्व क्या है. हालांकि वे ऐसा मान सकते हैं या शायद मानते भी होंगे कि अपने नाम पर भीड़ जुटाना ही एक बड़ी बात है और हर किसी व्यक्तित्व की यह विशेषता नहीं बन सकता. वस्तुत: सच यही है कि प्रभावशाली व्यक्तित्व से अलग एक बेवकूफ बना सकने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है. इसके साथ ही जुड़ा यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि भीड़ जुटाने के लिए बहुत अधिक प्रभावकारी व्यक्तित्व की आवश्यकता है नहीं है, न ही किसी के नाम पर भीड़ जुट जाना उसके गौरवशाली व्यक्तित्व का प्रमाण हो सकता है. अंतत: उसका कृतित्व हमेशा उसके साथ चलता है और वही उसके व्यक्तित्व को पारिभाषित भी करता है. इसलिए जुटने वाली भीड़ का चरित्र या प्रकार इस हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है.
भाजपा के पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी आज के नेताओं में अभिनेता से कम नहीं कहे जा सकते. यहां अभिनेता से ‘अभिनय’ का तात्पर्य नहीं है. बल्कि उनके अभिनेता से तात्पर्य उनके साथ-साथ चलने वाले विवादों से है. जिस प्रकार अभिनेता हमेशा विवादों से जुड़े रहते हैं, नरेंद्र मोदी का नाम भी विवादों से गहरा ताल्लुक रखता है. भाजपा के ये पीएम इन वेटिंग के साथ विडंबना कहें या उनकी कार्य शैली कि गुजरात के मुख्यमंत्री से इतर राष्ट्रीय स्तर पर एक लोकप्रिय नाम बनने के पीछे भी विवाद (गुजरात दंगों में संलिप्तता का विवाद) ही रहा.
भावी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी हालांकि इन विवादों से पीछा छुड़ाने के मूड में नहीं दिखते. ऐसा लगता है वे इन विवादों को एंजॉय करते हों. शायद करते भी हों क्योंकि किसी भी विवादों से जुड़ते-जुड़ते ही वे भाजपा के पीएम इन वेटिंग के पद तक पहुंच गए. शायद विवादों के बिना नरेंद्र मोदी के आज के व्यक्तित्व की लोकप्रियता और आज के समय में उनका जो ओहदा है उस तक नहीं पहुंच सकते थे. शायद यही वजह है कि आज भी मोदी इनसे पीछा छुड़ाने की बजाय इन्हें और छेड़ने, विवादों में घुसने की कोशिश में लगे नजर आते हैं. चाहे वह हिंदुत्व और धर्म के सवाल पर ‘देवालय से पहले शौचालय बनाने’ का बयान हो या ‘राहुल गांधी को युवराज कहकर छेड़ने’ की बात; चाहे वह अपने चिर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को ‘खूनी पंजा’ कहने की बात हो या ‘सोनिया गांधी की बीमारी का मजाक बनाते हुए राहुल को गद्दी सौंपने’ की बात; चाहे वह सरदार पटेल और उन जैसे कई वरिष्ठ और कर्मठ नेताओं को कांग्रेस में कम महत्व दिए जाने की बात हो या अपनी ही पार्टी में पितामह लालकृष्ण आडवाणी को विस्थापित करने की बात, लालकृष्ण आडवाणी को छोड़कर हर जगह नरेंद्र मोदी स्वयं ही विवादों से नाता जोड़ते नजर आए.
विवादित पुरुषों के ये मुखिया अपनी स्थिति से संतुष्ट ही नहीं, अति प्रसन्न भी हों सकते हैं लेकिन विवादों के दामन के साथ बहुत आगे नहीं जाया जा सकता. विवादों की सीढ़ियां चढ़कर नरेंद्र मोदी भाजपा के पीएम इन वेटिंग के ओहदे तक पहुंच सकते हैं पर आगे के रास्ते के संबंध में शायद न उन्होंने, न भाजपा ने, न ही भीड़ ने सोचा होगा. ऊपर यहां भीड़ के चरित्र की बात हो रही थी. हालांकि यह हर प्रकार के व्यक्तित्व से जुड़ी भीड़ से नाता रखता है लेकिन क्योंकि बात नरेंद्र मोदी की हो रही है तो इनके द्वारा जुटाई गई भीड़ और विवादों का इस भीड़ पर असर बहुत मायने रखता है. गुजरात दंगों के साथ विवादों में घिरने के साथ ही नरेंद्र मोदी की किस्मत का सितारा भी उसके साथ ही जैसे चमक गया. मोदी गुजरात दंगों में संलिप्तता के आरोपों से तो बरी साबित हो गए लेकिन इसके दाग लेकर चलते हुए उन्होंने उसी को भीड़ जुटाने का जरिया बना लिया. इस दंगे में संलिप्तता के आरोपों के साथ ही उनके व्यक्तित्व के साथ ‘मुस्लिम-विरोधी व्यक्तित्व’ अपने आप जुड़ गया जिसे हटाने के प्रयास शायद वे न करते लेकिन भीड़ में एक एक तबका (मुस्लिमों का) ऐसा था जो उनकी भीड़ से बहुत दूर था. मोदी की यह भीड़ भी मैदानों और रैलियों में जुटने वाली भीड़ से अलग फेसबुक पर जुटने वाली युवाओं की भीड़ ज्यादा नजर आती है. यह वह भीड़ है जिसे दो-चार सपने दिखाते हुए भ्रमित किया जा सकता है.
हो सकता है किसी जगह विवाद थोड़ी देर के लिए नरेंद्र मोदी को लोकप्रियता में ‘कैटलिस्ट’ का काम करे लेकिन इस भारत का भावी प्रधानमंत्री का सपना देख रहे इस व्यक्तित्व को अमेरिका एक समय विवादों का नाम लेकर ही वीजा देने से मना कर देता है. बीते कुछ दशकों में अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में रूस से हटकर भारत अमेरिका की तरफ मुखातिब हो चला है. गुजरात दंगों के आरोपों में नरेंद्र मोदी का नाम आने को आधार बनाकर अमेरिका नरेंद्र मोदी को वीजा देने से मना कर चुका है. अब जब नरेंद्र मोदी ही भाजपा के ‘पीएम इन वेटिंग’ का चेहरा बन चुके हैं और अगर खुदा ना खास्ता अगर वे चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन जाते हैं तो अमेरिका या कोई भी देश किसी देश के प्रधानमंत्री को वीजा न देकर उसका अपमान तो नहीं करेगा लेकिन उस स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उसकी क्या छवि क्या होगी सहज ही समझा जा सकता है.
आज नरेंद्र मोदी केवल भारत नहीं अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी बहस का मुद्दा हैं लेकिन बहस में उनकी कुशल कार्यशैली नहीं बल्कि भारत का प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में भारतीय धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के प्रभावित होने पर बहस हो रही है. हालांकि किसी और देश को इसपर बहस का कोई अधिकार नहीं, न इससे कोई फर्क पड़ता है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मंच पर क्या एक विवादित चेहरे को देश का नेतृत्व करने का अधिकार दिया जा सकता है? क्या इससे देश की छवि को नुकसान नहीं पहुंचेगा? ऐसे कई सवाल हैं और जवाब भी हर किसी को पता है, ‘नहीं!’ लेकिन हमारे देश की एक बड़ी विशेषता है यहां जुटने वाली भीड़ का चरित्र. हमारे देश की भीड़ का चरित्र है भावुकता! भावुकता में बांधकर उन्हें बेवकूफ बनाने के खेल को राजनीति का नाम दे दिया जाता है. इस भीड़ को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि से कोई मतलब नहीं. पर सवाल यथावत कायम रहेंगे – क्या अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक विवादित चेहरे को देश का नेतृत्व करने का अधिकार दिया जा सकता है? क्या इससे देश की छवि को नुकसान नहीं पहुंचेगा?
Narendra Modi As PM
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