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छींटाकशी का दौर शुरू हो चुका है

हम आप पर कीचड़ उछालेंगे, आप डालो जितनी मिट्टी डालनी है हमपर. खेलनी है तो ये होली भी बुरी नहीं. चलो पूरे मन से खेलते हैं. देखते हैं कौन जीतता है. छिछले छींटाकशी का दौर शुरू हो चुका है. हम बुरे सही, लेकिन तुम भी कौन से अच्छे हो! यूं कह लें कि दूसरों को खुद से ज्यादा बुरा साबित करने की होड़ सी लग गई है क्योंकि सबको पता है कि अच्छा तो कोई नहीं, लेकिन जो कम बुरा जान पड़ेगा गद्दी उसी की होगी. गद्दी की दौड़ में सब ‘कम बुरा’ कहलाने की रेस लगा रहे हैं.


narendra modi vs rahul gandhiआधुनिक भारतीय राजनीति के इतिहास में वर्तमान राजनीति शायद एक और नया अध्याय रचते हुए नया राजनीतिक युग स्थापित करने वाला साबित हो. 2014 के चुनावों की मारामारी में सब हलके जान पड़ रहे हैं लेकिन खूबी यह है कि कोई इस हल्केपन को छुपा नहीं रहा. चाहे वह कोई भी खेमा हो. दिग्गज कांग्रेस हो या घिसटती हुई भाजपा, हर कोई अपने दिख रहे हालात को मानते हुए उसी में नया रंग भरने की कोशिशों में जुटा है. अगर इसे नई प्रकार की ‘हौसलों की राजनीति’ का नया अध्याय कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी.


अभी हाल की बात है भाजपा के युवराज और कांग्रेस के भविष्य ‘राहुल गांधी’ ने उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों को ‘आईएसआई प्रायोजित’ बता दिया. राहुल के अनुसार पाकिस्तानी संगठन आइएसआई ने मुजफ्फरनगर के कुछ मुस्लिम युवकों को खरीदकर जानबूझकर यह दंगा करवाया था. राहुल के इन बोलों पर बवाला तो होना ही था. आजम खान जिनपर दंगे करवाने आरोप लगा वे तो भड़के ही, लगे हाथ भाजपा ने भी चुनाव आयुक्त से शिकायत लगा दी. फिर नरेंद्र मोदी भला आगे आने का मौका कहां चूकते. उन्होंने भी कह दिया कि राहुल को अगर पता था उन्होंने इसे रोका क्यों नहीं, और आज भी अगर पता है तो वे आईएसआई द्वारा खरीदे गए उन लोगों के नाम जाहिर करें. इस तरह हर तरफ से घेरकर कांग्रेस के इस नौसिखिए, उथले ज्ञान के प्रतीक राहुल गांधी की एक बार फिर फजीहत कर उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए एक हल्का उम्मीदवार साबित कर अन्य पार्टियां खासकर बीजेपी शायद थोड़ी और आत्मविश्वासी हो गई होगी.

तो क्या अभी भी राहुल को ‘बेबी’ समझते हैं चिदंबरम?


अब जो दूसरा वार है वह कांग्रेस ने बीजेपी पर किया है. नरेंद्र मोदी द्वारा अपने भाषण में सीधे-सीधे कांग्रेस का नाम न लेते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कांग्रेस के ‘लोगो (पंजे का निशान)’ को खूनी पंजा बताकर सभा को संबोधित करना कांग्रेस को अखड़ गया. कांग्रेस ने चुनाव आयोग से नोदी के लहजे पर शिकायत दर्ज कराई है. कांग्रेस का कहना है कि इस तरह उनके ‘लोगो’ को ‘खूनी पंजा’ संबोधित कर नरेंद्र मोदी ने न केवल कांग्रेस का अपमान किया है बल्कि आम लोगों के बीच भी उनकी छवि को खराब करने की कोशिश की है. कांग्रेस के लिए आम जनों में भय का माहौल बनाने की कोशिश की है.


general election 2014आज का पूरा राजनीतिक परिदृश्य ऐसा जान पड़ रहा है मानो राजनीति की नीतियों से अलग यहां ‘कुत्ते-बिल्लियों की लड़ाईयां’ चल रही हों. जीतने की जुगत तो शायद ही कहीं दिखे, हर हाल में हराने की कुश्ती जरूर है. इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला यह कि शायद राजनीति की रणनीतियां अब खत्म हो गई हों या राजनीति की जगह अब बस सत्ता की दौड़ रह गई हो या शायद अब राजनीतिज्ञों की कमी हो गई हो. राजनीतिज्ञों की जगह आज नरेंद्र मोदी जैसे तकनीक पसंद विकासपुरुष ने ले ली है या शायद राहुल गांधी जैसे युवा चेहरे की चाह में राजनीति की नीतियों की चमक कहीं गौण पड़ गई हो. एक तरफ विकासपुरुष की मर्यादा है कि वे अपनी विकास नीतियां बताने की बजाय दूसरों की नीतियों की खामियां गिना रहे हैं. अब इसे राजनीति की नई रणनीतियां बनना कहा जाए या राजनीतिक रणनीतियों की कमी कि नरेंद्र मोदी और उनकी अगुवाई में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ऐसा लगता है भूल गए हों कि राजनीति के केंद्र में हमेशा आम जनता और आम जनों की भलाई होती है, न कि राजनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञों की साख. पहले सरदार पटेल, अब अबुल कलाम आजाद और आचार्य कृपलानी की छवि का कांग्रेस की परिवारवाद की नीतियों में खो जाने की बातें हो रही हैं. अभी शायद खोज जारी हो और आने वाले दिनों में लोगों की याददाश्त पर जमी धूल झाड़ते हुए, इसी तरह खो चुके और भी दिग्ग्ज राजनीतिज्ञों के नाम आपको याद दिलाए जा सकते हैं. पर यहां भी सवाल कई हैं.

विकास पुरुषों की राजनीति विकास पर भारी न पड़ जाए


एक बड़ा सवाल..कि आखिर इस तरह भाजपा और नरेंद्र मोदी किसे क्या एहसास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं? आखिर यह उनकी किस राजनीति का कौन सा हिस्सा है? वे किसे और क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर आम जनता को कई बड़े नेताओं के कांग्रेस में आगे न बढ़ पाने की बात वह बताना चाहते हैं तो यह तो बेतुकी बात लगती है क्योंकि आम जनता आज भी ‘चाचा नेहरू’ और जवाहरलाल नेहरू के भक्त हैं. उन्हें कोई शिकायत नहीं कि जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने और सरदार पटेल नहीं बने. उन्हें कोई मतलब नहीं कि आचार्य कृपालानी को कांग्रेस ने राजनीति में कितना महत्व दिया. उन्हें कोई मतलब नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सरदार पटेल क्या-क्या कर सकते थे और जवाहरलाल नेहरू ने नहीं किया. उन्हें इस बात से भी कोई मलतब नहीं कि सरदार पटेल या आचार्य कृपलानी के ज्यादा काबिल होने के बावजूद भी वे कांग्रेस के परिवारवाद की राजनीति में महत्व नहीं दिए गए. अगर किसी को इन बातों से मतलब हो सकता है तो वे हैं कांग्रेस के राजनीतिज्ञ कि कांग्रेस की परिवारवाद की नीतियों में हो सकता है वे भी इन दिग्गजों की तरह कहीं खो जाएं. तो क्या नरेंद्र मोदी इन राजनीतिज्ञों को ही यह संदेश देना चाहते हैं कि कांग्रेस उन्हें सत्तापक्ष पार्टी के सदस्य होने का नाम तो दे सकती है लेकिन सत्ता में आने का हक वे उन्हें नहीं देगी और अगर देगी तो उनका हश्र मनमोहन सिंह की तरह होगा?


अगर नरेंद्र मोदी और भाजपा की यह रणनीति है तो इसमें आम जन और उनका भला कहीं नजर नहीं आता. सत्ता का सुख पाने की उत्कंठ आकांक्षा के लिए लेकिन यह रणनीति कारगर हो सकती है. एक प्रकार से यह संदेश है कांग्रेस और उसका साथ देने वाली पार्टियों, नेताओं के लिए कि निजी तौर पर यहां उनका कोई भविष्य नहीं है. हां, सत्ता पार्टी में होने का सुख पिछलग्गू की तरह उन्हें मिल सकता है.


कमाल की बात है कि राजनीति के समीकरणों में राजनीति का केंद्र (आम जन) ही मौजूद नहीं है. एक तरफ हैं ‘नरेंद्र मोदी की विकास नीतियां’ जिसमें हर हाल में वे भावी प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश संजोए उत्साहित नजर आते हैं, दूसरी तरफ हैं ‘कांग्रेस के युवा भविष्य राहुल गांधी’. सच है, अगर राहुल गांधी कहते हैं कि खुफिया एजेंसियों को आईएसआई द्वारा मुजफ्फरनगर में युवकों को खरीद कर दंगे करवाने की भनक थी तो उनकी सरकार ने इसे होने क्यों दिया? अगर राहुल गांधी और उनकी सरकार को पता है कि आईएसआई ने युवकों को खरीदकर मुजफ्फरनगर में दंगे करवाए तो वे ऐसे लोगों का नाम सरेआम कर क्यों उसे कठघरे में खड़ा कर सजा नहीं दिलवाते? और सबसे बड़ा सवाल कि इतने बड़े लोकतांत्रित देश के शासन में बाहर का कोई संगठन आतंक फैलाने में सफल कैसे हुआ? अगर हुआ है तो यह केंद्र सरकार की भी अक्षमता साबित करती है.


राजनीति के इन छिछले समीकरणों में रणनीतियां कहीं गुम होती जा रही हैं. ऐसी राजनीति शायद सत्ता दिला भी दे लेकिन राजनीतिज्ञ होने का मान नहीं दिला सकतीं, न राज्य की भलाई इसमें निहित है. भारतीय राजनीति का यह वह दौर है जब छिछले व्यंग्यबाणों और छींटाकशी की जगह एक कुशल और वाक्पटु राजनीतिज्ञ की कमी खलने लगी है.

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