एक वक्त था जब सीबीआई जांच का अर्थ होता था निष्पक्ष जांच और न्याय का वादा. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सीबीआई की विश्वसनीयता पर भी सवालों के दायरे बनने लगे हैं. अब गुवाहाटी हाईकोर्ट द्वारा इसके गठन को असंवैधानिक बताया जाना कई बड़े सवाल खड़े कर रही है.
संदेहरहित और निष्पक्ष जांच की एक इकाई मानी जाने वाली सीबीआई के गठन को असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद यह संस्था और इसकी जांचें भी संदेह के घेरे में हैं. कांग्रेस की सरपरस्त और पैरोकार मानी जानेवाली सीबीआई के खिलाफ गुवाहाटी हाईकोर्ट के इस फैसले को इस नजरिए से बात करने वाले इसे कांग्रेस के लिए आघात मान रहे हैं. हालांकि कांग्रेस गुवाहाटी हाईकोर्ट के इस फैसले पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील कर रही है लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को सही मान लिया तो कई प्रश्न एक साथ खड़े होंगे. कई न्यायिक इकाईयों के लिए दुविधा पैदा होगी.
गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार सीबीआई का गठन किसी अध्यादेश के तहत नहीं हुआ है, न इसपर संसद में बहस हुई है, न इसके निर्देशों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हैं, न यह पुलिस की कोई इकाई है. केवल गृहमंत्रालय की अनुशंसा पर सीबीआई का गठन हुआ. ऐसे में यह केवल एक आधिकारिक निर्देश मानी जा सकती है और सीबीआई पास बयान दर्ज करने, मामले दर्ज करने, चार्जशीट दाखिल करने या मामले की जांच का अधिकार निरस्त माना जाएगा. इसके साथ सीबीआई द्वारा दर्ज और जांच किए जा रहे मामले लंबित हो जाते हैं. इस तरह पूर्व में जांच किए जा चुके मामलों पर भी वैधता के सवाल उठ सकते हैं जो कानून, सरकार, अदालत और आम जनता हर किसी के लिए मुसीबत का सबब है. 2जी मामले में दोषी और पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने गुवाहाटी हाईकोर्ट के इस फैसले का हवाला देते हुए सीबीआई द्वारा उनके खिलाफ दायर किया आरोप पत्र और चल रही कार्रवाई को अवैध घोषित किए जाने की मांग की है. इसी प्रकार सिख दंगों में आरोपी सज्जन कुमार जिनके खिलाफ सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया है, ने भी इसे अवैध घोषित करने की मांग की है. यह कुछ उदाहरण हैं जो फिलवक्त सामने हैं. इस फैसले के गर्भ में भविष्य में ऐसे और भी मामले सामने आ सकते हैं. कई राजनीतिक मामलों में आरोपी, दोषी अपने आरोप पत्र और सजा की वैधता पर सवाल खड़े कर सकते हैं.
ऐसे में तब दो ही विकल्प रह जाते हैं या तो सीबीआई द्वारा आरोपित, जांच किए गए सभी मामलों को निरस्त कर नए सिरे से जांच करवाने का आदेश पारित किया जाए जिसमें कई अपराधियों के बाहर आने के रास्ते खुल सकते हैं. इसमें एक और बड़ी पेंच यह भी है कि पहले से ही लंबित पड़े मामलों में हजारों लंबित मामले और आ जाएंगे. जाहिर है इससे न्याय व्यवस्था प्रभावित होगी. दूसरे विकल्प के तौर पर एक ही रास्ता है कि बीच का कोई रास्ता निकालकर सीबीआई को नए सिरे से गठित किया जाए जैसा कि मांग की जा रही है. इसमें व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि पूर्व में सीबीआई द्वारा निर्देशित मामलों की सत्यता और संरचना पर असर न पड़े.
कोर्ट द्वारा किसी भी फैसले या किसी भी न्यायिक या कानूनी व्यवस्था का केवल एक ही संदर्भ है ‘आमजन की भलाई’. सीबीआई की संरचना का संदर्भ और इसका गठन भी इसी पर आधारित था. आज के संदर्भ में सीबीआई की सत्यता और विश्वसनीयता हर तरफ संदेह के घेरे में है. ऐसे में किसी भी राजनैतिक या निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर सरकार और न्यायिक इकाईयों को मिलकर कोई रास्ता निकालना चाहिए.
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