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एक झूठ को सौ बार बोलो तो सच बन जाता है

आप बेहिचक आइए और हमें अपनी पसंद बनाइए..और लोग भी पीछे आ रहे हैं. आपके पीछे आने वाले हर इंसान ने हमें अपनी पहली पसंद बनाई है. आप चाहें आप भी हमें अपनी पसंद बना सकते हैं लेकिन यह आपकी पसंद है और आप कुछ भी पसंद करने के लिए स्वच्छंद हैं. आप चाहे हमारा चुनाव करो या बहिष्कार कर दो, इससे हमारा कोई नुकसान नहीं, फायदा आपका है गौरव हासिल करने का…इस भीड़ से ज्यादा बड़ी, पीछे आ रही भीड़ की पसंद से हम हमेशा नेतृत्व में रहेंगे. अब यह आपका चुनाव है कि आप सर्वसम्मति से जो ज्यादा लोगों की पसंद है उसे चुनकर नेतृत्व के चुनाव का गौरव पाना चाहेंगे या अपनी महत्वहीन पसंद जो वैसे भी आप जैसे कुछ ही लोगों की पसंद है और नेतृत्व में आने से बहुत दूर है उसका चुनाव कर अपनी पसंद का नेतृत्व नहीं बना पाने की उपेक्षा का अनुभव करना चाहेंगे…अब यह आपकी पसंद है कि आप गौरव के साथ रहो या उपेक्षित बन जाओ..हम तो वैसे भी गौरव के स्तर तक पहुंच चुके हैं…


political parties election agendaयह कोरी बकवास नहीं. मौजूदा हालात में सामने नजर आ रही कुछ कड़वी सच्चाइयों का एक खाका है. भारतीय लोकतंत्र में इन दिनों एक नया चलन पैदा हो रहा है…’सर्वे का चलन’. कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और लोकसभा चुनाव भी सिर पर है. पिछले दो दशकों के मुकाबले लेकिन आज का राजनीतिक परिदृश्य थोड़ा नहीं, गौर करें तो बहुत ज्यादा अलग है. दो दशक पहले जहां राष्ट्रीय स्तर की कुछ-एक राजनीतिक पार्टियां थीं, उनमें भी कांग्रेस और बीजेपी के अलावे अन्य पार्टियां लगभग सहयोगी की मुद्रा में ही नजर आते थे, राज्य स्तर पर भी क्षेत्रीय दलों में कुछ ऐसे ही दृश्य थे. आज के हालात का मुहायना करें तो उसकी तुलना में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की बाढ़ आ गई है. इसके साथ ही जीतने की प्रतियोगिता भी बढ़ गई है. इस प्रतियोगिता ने राजनीति में एक नए क्षेत्र को जन्म दिया है और वह है ‘मार्केटिंग’ जो अब तक केवल प्राइवेट कंपनियों की जरूरत थी वह अब राजनीति का हिस्सा बनता नजर आ रहा है.


एक कहावत है ‘एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह भी सच बन जाता है..’यह कहावत मार्केटिंग के क्षेत्र में बहुतायत प्रयोग होता है. इसका एक बड़ा आधार है ‘बातों के द्वारा अपने पक्ष में प्रभाव पैदा करना’. प्रभावित करने का यही भाव मार्केटिंग के बड़े टूल विज्ञापन का आधार है. सवाल उठ सकता है कि इस मार्केटिंग के भाव का राजनीति में कैसे समावेश कर सकते हैं? सवाल कर सकते हैं लेकिन जवाब भी उतना ही साफ और तथ्यात्मक है.

इशारों-इशारों में कुछ कहता है यह ‘लोक’ तंत्र


विधानसभा और लोकसभा चुनावों के मद्देनजर हर पार्टी जी-जान से चुनाव प्रचार में जुटी है. हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को अपने पक्ष में लाना चाहती है लेकिन जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है पिछले कुछ दशकों की तुलना अन्य क्षेत्रों की तरह राजनीति में भी प्रतियोगिता बढ़ गई है. कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हर छोटी-बड़ी पार्टी अब बस सहयोगी की भूमिका में नहीं रहना चाहती, बल्कि नेतृत्व में आना चाहती है. ऐसे में उनके प्रयास भी बड़े होते हैं और बड़ी राजनीतिक पार्टियों को भी ये बड़ी प्रतियोगिता देते हैं. मार्केटिंग का यह टर्म यहीं उभरकर सामने आता है. इसमें नरेंद्र मोदी का नाम सबसे ऊपर लिया जा सकता है जिन्होंने राजनीतिक समीकरणों को टेक्नो-फ्रेंडली बनाने की पहल की है और राजनीति में मार्केटिंग के एक नए युग का सूत्रपात किया है. खैर हम यहां इस नए मार्केटिंग टूल से अलग दो दशक पुराने टूल पर ही बात कर रहे हैं…’सर्वे टूल’! ‘सर्वे’ जो मार्केटिंग का महत्वपूर्ण टूल है आजकल चुनावों में अपनी प्रभावोत्पादकता बढ़ाने के लिए धड़ल्ले से उपयोग किए जाने की ताक में है.


इसी सप्ताह की बात है आनेवाले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कौन सी पार्टी और कौन से नेता जनता के बीच ज्यादा पैठ रख रहे हैं, किन पार्टियों और नेताओं की जीत की कितनी संभावना है इसके लिए किसी निजी मीडिया संस्थान तथा आप (आम आदमी पार्टी) द्वारा सर्वे कराया गया. एक का कहना था कि बीजेपी की जीत की ज्यादा संभावनाएं हैं, एक (आप सर्वे) का कहना था कि उसकी पार्टी और उसके नेता जनता के सबसे बड़ी पसंद बनकर उभर रहे हैं और चुनावी नतीजों में उनके सबसे ऊपर यानि की उनकी जीत की सबसे ज्यादा संभावनाएं बन रही हैं. इस सर्वे पर एक बड़ा विवाद तब खड़ा हो गया जब आप के नेता अरविंद केजरीवाल ने निजी चैनल द्वारा किए सर्वे और उसके परिणामों की पारदर्शिता पर सवाल खड़ा कर दिया. केजरीवाल का कहना था मीडिया संस्थान अपनी पसंद की पार्टी के पक्ष में भ्रामक स्थिति उत्पन्न कर जनता को झूठे सर्वे रिपोर्टों से गुमराह करना चाहती है और इस तरह जनता के बीच एक सामान्य सी स्थिति यह उत्पन्न हो जाएगी कि लोग किसी पार्टी या नेता को ज्यादा पॉपुलर मानकर उसे ही वोट दे देंगे जबकि हकीकत में वह लोगों की पसंद होती ही नहीं.

देवालय से ज्यादा शौचालय को प्राथमिकता देंगे मोदी जी !!


pre election surveyवास्तव में यह एक बड़ा सवाल है. चुनाव के समय सर्वे रिपोर्टों की बाढ़ आ जाती है. कोई किसी पार्टी के पक्ष में मतदाताओं की पसंद बनने की बात करता है तो कोई किसी और के पक्ष में. आजकल तो राजनीतिक पार्टियां खुद ही सर्वे कराती और खुद ही अपनी रिपोर्टों के आधार पर दावे कर रही हैं. हालांकि आम आदमी पार्टी ने मीडिया संस्थानों के सर्वे रिपोर्ट की परदर्शिता पर सवाल उठाया है इस संबंध में उस निजी मीडिया संस्थान द्वारा इसी संबंध में उस तैयार किया गया इंटरव्यू पैनल कार्यक्रम उल्लेखनीय है. इसमें कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी तथा आप के नेता योगेंद्र यादव समेत कई पार्टियों के प्रमुख नेता आमंत्रित थे. कार्यक्रम में चर्चा हालांकि सर्वे के आधार पर अपनी पार्टी के पक्ष में प्रभाव उत्पन्न करने की कोशिशों पर चर्चा थी लेकिन एक हास्यास्पद स्थिति तब पैदा हुई जान पड़ रही थी जब हर कोई अपनी पार्टी के पक्ष को समझाता हुआ लगने लगा. यहां तक कि कार्यक्रम के प्रस्तोता खुद अपने पक्ष को जस्टिफाई करते नजर आ रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे कर्यक्रम इस नए सामाजिक मुद्दे पर बहस के लिए नहीं जनता के बीच अपनी साख बचाने के लिए क्लैरिफिकेशनदेने के लिए रखा गया. हर कोई खुद को सही और दूसरे को गलत बता रहा था जो अमूमन ऐसी हर जगह होती है.


यहां इस कार्यक्रम और सर्वे का हवाला देने का मकसद इस नए भ्रामक स्थिति को पैदा कर अपने पक्ष में चुनाव परिणाम करने की नई राजनीतिक रणनीति की स्थिति स्पष्ट करना है. चुनाव के समय सर्वे कोई नई बात नहीं है, न मीडिया संस्थानों की इसमें संलिप्तता नई है. 90 के दशक में जब नए-नए निजी चैनल्स आ रहे थे…तब भी चुनाव पूर्व पॉल रिपोर्ट पर काफी हंगामा हुआ था. तब एक सवाल उठा था कि क्या ये पॉल रिपोर्ट जनता को भरमाने की कोशिश करते हैं और इन्हें बंद किया जाना चाहिए? तब कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा था. आज भी वस्तुत: वैसी ही कुछ स्थिति दीख पड़ती है. सर्वे और इसके रिपोर्ट की सत्यता के संबंध में कुछ मानक तय हैं. इसमें संख्या एवं सर्वे में शामिल लोगों के प्रकारों के आधार पर रिपोर्ट तैयार की जाती है और उसी पर उसकी सत्यता भी निर्भर करती है. चुनावी सर्वेक्षणों में इन मानकों का पालन नहीं किया जाता. करोड़ों की जनसंख्या में कुछ हजार लोगों के बीच सर्वे कराकर इसे किसी पार्टी के पक्ष या विपक्ष में बन रहा राजनीतिक माहौल घोषित कर दिया जाता है. एक नजर देखने में लगता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन वास्तव में यह बहुत प्रभावकारी साबित हो सकता है.


हिंदुस्तान में आज भी ज्यादातर लोग ‘देखादेखी’ वाली परंपरा का निर्वाह करते हैं. मतलब ‘अगर ज्यादातर लोग वही कर रहे हैं, तो वह भी वही करेंगे’. वैसे भी यहां वोटरों की ज्यादातर ग्रामीण जनसंख्या है जिनमें जागरुकता की कमी है. उन्हें अगर बताया जाए कि ज्यादा लोग अमुक पार्टी या नेता को पसंद करते हैं और वह जीतने वाला है तो वे भी उसके पक्ष में वोट देने को तैयार हो जाते हैं. ज्यादातर लोगों की मानसिकता यह होती है ‘अपना वोट बर्बाद न हो’…बर्बाद न हो मतलब ‘जीतने वाले के पक्ष में उनका वोट हो’. अगर पार्टी या नेता जीत ही रहे हैं तो उसके वोट न देने से भी वे जीतेंगे ही. इसलिए वह भी उसे ही वोट देगा जो जीतने वाला है. सर्वे रिपोर्ट कुछ इसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करने की कोशिश कर रहे हैं. नि:संदेह यह लोकतंत्र के लिए एक भ्रामक एवं घातक स्थिति लाने वाले हालात पैदा कर सकता है जिसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पारदर्शिता पूरी तरह लुप्त हो जाएगी. ऐसी कोई भी स्थिति लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है और इसपर तत्काल नियंत्रण अति आवश्यक है.

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शुद्धीकरण का शुभारंभ !

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