कुछ लोक का स्वभाव ऐसा है, कुछ तंत्र की संरचना ऐसी है तंत्र कभी लोक पर हावी नहीं हो सकता. लोकतंत्र में ‘लोक’ हमेशा सबसे ऊपर माना गया है. जो होता है सब इसी लोक कल्याण के लिए. इसी कल्याण के लिए लोक किसी को कभी राजा बना देता है तो आगे इसी लोक कल्याण के लिए उसी राजा को नीचे उतार फेंकने में कोई गुरेज नहीं करता. मतलब यह कि पूरे तंत्र का कार्यभार आखिर इसी ‘लोक’ के हाथ होता है लेकिन मुश्किल यह है कि इस तंत्र की सुव्यवस्था के लिए शामिल किए कुछ लोग ‘लोक और तंत्र’ से भी ऊपर होने की खुशफहमी पाल लेते हैं और इस तरह छिछली राजनीति की बिसातें बिछनी शुरू होती हैं जिसमें भ्रष्टाचार, घपलेबाजी, अनाचार, अत्याचार आदि आदि…आदि जैसे तंत्र से विरल कई नई बातें जुड़ जाती हैं. लेकिन तंत्र कभी लोक पर हावी नहीं हो सकता..कुछ लोक का स्वभाव ऐसा है, कुछ तंत्र की संरचना ऐसी है.
भारत में मानसून के साथ ही एक बहुत महत्वपूर्ण मौसम आता है और वह है ‘चुनाव का मौसम’. वह मौसम आ चुका है. दिल्ली से लेकर पूरे देश में चुनावी माहौल बन चुका है. हर पार्टी जो सत्ता से बाहर है सत्ता में आने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने को तैयार है, जो सत्ता में है वह हर हाल में दुबारा इस पर काबिज होने की जुगत लगा रहा है. लेकिन तंत्र उसी का होगा जो लोक को भाएगा. लोक को वही भाएगा जिसमें लोक कल्याण की भावना उसे सबसे ऊपर नजर आएगा. इसी लोक और तंत्र के खेल का आंकलन अब चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में किया जाने लगा है. हर बार चुनाव से पहले कयासों का बाजार गर्म हो जाता है कि इस बार कौन? चुनाव का नतीजा हालांकि सही-सही आंकलित किया जाना संभव नहीं होता लेकिन एक हद तक चुनाव से पूर्व उसकी दिशा जानने की बेचैनी को कम करती है. हालिया दो सर्वेक्षण यह एक बार फिर जनता की अहम भूमिका को साबित करते हुए राजधानी दिल्ली तथा केंद्र में बड़े उलट-पुलट के आसार दर्शा रहे हैं.
एबीपी न्यूज-नील्सन द्वारा 9 अक्टूबर से 12 अक्टूबर 2013 के बीच दिल्ली के 21 विधानसभा सीटों पर 3838 लोगों में किया सर्वेक्षण अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ‘आप’ सबसे पसंदीदा पार्टी बनकर उभरी है और बीजेपी दिल्ली की सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आ सकती है. चुनाव के इतने नजदीक यह सर्वेक्षण कुल 70 सीटों में बीजेपी को 28 सीटें, कांग्रेस को 22 तथा आम आदमी पार्टी (आप) को 18 सीटें तथा अन्य को 2 सीटें मिलने की उम्मीद जताता है. इसमें हर गली-मुहल्ले, मेट्रो में बड़े ही मजाकिया तरीके से अपने कार्यों का प्रचार कर रही कांग्रेस और शीला दीक्षित सरकार बनाने से बड़ी दूर नजर आती हैं. गौरतलब है कि अपने विवादित और निरंकुश से लगने वाले बयानों से भी सुर्खियों में रहने वाली, दिल्ली में अपने विकासपरक कार्यों का बढ़-चढ़कर उल्लेख करने वाली कांग्रेस की शीला दीक्षित 65 फीसदी लोगों के अनुसार एक बार फिर दिल्ली की मुख्यमंत्री नहीं बननी चाहिए. एक और बात जो यहां उल्लेखनीय है कि अगस्त से लेकर अक्टूबर तक सर्वे कांग्रेस तथा बीजेपी को क्रमश: पांच तथा चार सीटों का नुकसान होने की आशंका जताता है जबकि केजरीवाल की ‘आप’ 10 सीटों की बढ़त लेती दिखती है.
2014 के लोकसभा चुनाव के लिए टाइम्स द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार इस बार के इस चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली हैं. 16 अगस्त से 15 अक्टूबर के बीच 24,284 वोटरों के बीच कराया गया सर्वेक्षण कहता है कि देश के अधिकांश हिस्सों में कांग्रेस की उम्मीदवारी कमजोर हुई है जबकि भाजपा की स्थिति तुलनात्मक रूप से बहुत मजबूत मानी जा सकती है. हालांकि सर्वेक्षण कांग्रेस-बीजेपी या अन्य किसी भी पार्टी का बहुमत के साथ जीतने की संभावना से इनकार करता है लेकिन भारी भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझती कांग्रेस को हर तरफ सीटों का नुकसान होने के आसार हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और केरल में जहां पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मजबूत थी इस बार उसे वहीं नुकसान हो रहा है. बीजेपी इसके ठीक उलट उत्तर प्रदेश और बिहार में लाभ में नजर आ रही है, यहां तक कि सर्वेक्षण बीजेपी को राजस्थान में दुबारा सत्ता में वापस आने की पूरी संभावना जता रहा है.
सर्वेक्षण एक बड़ी उलट-पुलट की संभावना देश की दो बड़ी पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस को मिलने वाली कुल सीटों के लिए जताता है. पिछले 10 साल से केंद्र में सरकार चला रही और चुनाव के ठीक पहले विकास के नाम पर तमाम तरह की योजनाएं लागू करने वाली कांग्रेस तुलनात्मक रूप से (2009 के चुनावों में स्थिति से) 50 फीसदी सीटों के नुकसान की स्थिति में दिखती है जबकि इसी जगह बीजेपी 2009 के मुकाबले 40 फीसदी अधिक सीटों के लाभ की स्थिति में है. सर्वेक्षण कहता है कि पिछली बार की 206 सीटों की तुलना में इस बार कांग्रेस केवल 102 सीटें ही जीत पाएगी जबकि पिछली बार के 116 सीटों की तुलना में सुधार की स्थिति लाते हुए भाजपा 162 सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है. ऐसे ही एक बड़े वोटर प्रदेश बिहार तथा अन्य राज्यों में भी सीटों के तुलनात्मक अध्ययन सर्वेक्षण में सीटों का गणित उलत-पुलट के फेर में नजर आता है.
सीटों के इस गणित के केंद्र में भले ही केंद्र और राज्य में सरकार बनाना हो लेकिन इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण लोक यानि जनता की महत्वपूर्ण भूमिका है. ये सारे गणित इसी लोक की उलझाई हुई रणनीति है. जनता प्रत्याशी चुनती है अपने कल्याण के लिए लेकिन पार्टियां और प्रत्याशी सरकार में आकर शायद अपने आपको सुपर पॉवर समझने लगते हैं और जन-कल्याण को हाशिए पर रख देते हैं. जन-कल्याण के लिए यह नगण्य भाव जनता कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकती. पार्टियां समझती हैं कि जनता को खोखली बातों और दिखावटी दांतों से भरमाया जा सकता है लेकिन आज की जनता होशियार है. वह प्रत्याशियों को मौका देती है लेकिन आजमाने के लिए और हर बार उसी को आजमाना इसकी मजबूरी नहीं है.
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और शीला दीक्षित का उदाहरण यहां पूरी तरह फिट बैठता है. ‘आप’ को शुरू में बहुत हल्के में लिया गया. भूखे-नंगे झुग्गी-झोपड़ियों से भरी दिल्ली में बिजली जैसी समस्या को लेकर चलने वाली केजरीवाल की इस पार्टी को सीटें मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी लेकिन इस सर्वेक्षण ने इसे सिरे से नकार दिया. आम बातचीत में यह भी पाया गया है कि लोग केजरीवाल के बिजली जैसे मुद्दों को भले ही तरजीह न दें लेकिन वे शीला दीक्षित से इतने नाराज और निराश हैं कि उसके मुकाबले वे केजरीवाल को एक मौका देना चाहते हैं. एक युवा वोटर ने कुछ यूं कहा, “यार इतने सालों शीला दीक्षित हैं..हाल तो देख ही रहे हैं. इस बार केजरीवाल को मौका दे देते हैं”. यह एक साधारण सी बातचीत का हिस्सा है लेकिन ‘लोक की मनःस्थिति मानसिक अवधारणा’ को लक्षित करती है. चुनावी नतीजे जो हों लेकिन इतना तय है कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि थी, है और रहेगी. इसे राजनीतिक पार्टी और प्रत्याशी समझकर चलें इसी में जन-कल्याण और तंत्र कल्याण भी है.
Pre Election Surveys India
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