मुजफ्फरनगर दंगों में मृतकों की संख्या बढ़कर 38 हो गई है. 67 लोग घायल भी माने जा रहे हैं हालांकि यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है. उत्तर प्रदेश का मुस्लिम बहुल यह इलाका आज सुर्खियों में है, राष्ट्रीय चर्चा का विषय है. हर पार्टी, हर नेता इस पर अपने विचार देने में व्यस्त है. मुजफ्फरनगर हिंसा हुई तो इसमें कितने लोग मरे, क्यों मरे..वगैरह वगैरह….पहली बार सत्ता में आए युवा मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव के लिए यह लगातार दूसरा झटका साबित हुआ है.
हाल ही में आईएएस दुर्गा शक्ति नागपाल के सस्पेंशन को लेकर पूरे देश की किरकिरी झेल चुकी अखिलेश की सपा सरकार को विवादों में लाने का विपक्ष के लिए भी यह दूसरा मौका बन गया. विपक्ष और सत्ता पक्ष में सुलह की संभावना तो यूं भी किसी राजनीति में नहीं होती लेकिन एक गौर करने वाली बात यह है कि इतने के बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार और विपक्ष दोनों एक मुद्दे पर एकमत रहे और वह है ‘मुस्लिम वोट’ का मुद्दा. इस पूरे प्रकरण में विपक्ष की साजिश और सत्ता पक्ष की कमजोरियां दिखाने की कोशिश में ‘मुस्लिम वोट’ दोनों ही पक्षों के बयान में आ ही जाते हैं. खुशी की बात यह मानी जा सकती है कि चलो किसी एक बात पर तो दोनों पक्षों का एक मुद्दा है वरना तो एक-दूसरे की बखिया उधेड़ने की धुन में राजनेता एक बात पर हजार बातें निकालते हैं.
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अभी कल की ही बात है मुजफ्फरनगर हिंसा पर आगरा में सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में सपा के महासचिव सांसद रामगोपाल यादव ने सीधे-सीधे यह तक कह डाला कि मुजफ्फरनगर में हिंसा अब काबू में है और जब तक विपक्ष का दिमाग सही नहीं हो जाता उन्हें वहां जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती. इसके पीछे सपा सरकार कारण अपनी उस आशंका को बताती है जिसमें उसने इस हिंसा के पीछे राजनीतिक हाथ (संभवत: विपक्ष की भाजपा) होने की बात कही है. पहले जो निशानदेही इशारों-इशारों में की जाती थी इसमें वह खुलेआम होती नजर आ रही है. सरकार और विपक्ष के बीच यह खुला आरोप-प्रत्यारोप राजनीति की एक नई परंपरा की शुरुआत कर रही है.
विपक्ष की भाजपा जहां मुजफ्फरनगर दंगा को सरकार की कमजोर नीतियों और अक्षमता के रूप में परिलक्षित कर रही है वहीं सत्ता पक्ष का कहना है कि मुजफ्फरपुर की हिंसा को ‘दंगा’ कहना विपक्ष की गलत बयानबाजी है. मुजफ्फरनगर में दंगे नहीं हुए बल्कि यह दो गुटों के बीच मनमुटाव का मामला है और वह भी स्थानीय पुलिस प्रशासन द्वारा इसे गंभीरता से न लिए जाने के कारण हुआ. इस हिंसा को केवल दो दिनों में बहुत हद तक काबू में कर लेने के लिए सपा अखिलेश यादव की कार्यक्षमता का परिचायक बताती है लेकिन साथ ही हिंसा के लिए विपक्ष को खेमे पर हिंसा करवाने का आरोप भी जड़ देती है. सपा का कहना है कि यह हिंसा विपक्ष की भाजपा द्वारा ही करवाई गई है और वह भी इसलिए क्योंकि यह सपा के मुस्लिम वोटों को तोड़ना चाहती है. गौरतलब है कि इससे पहले भी दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में भी मुस्लिम वोटों का यह मुद्दा ही केंद्र में दिखा था. तब भी विपक्ष इसे सत्ता पक्ष द्वारा मुस्लिम समुदाय का विश्वास हासिल करने की रणनीति बता रही थी और आज भी उत्तर प्रदेश की सपा सरकार इसे उनके मुस्लिम वोटरों का विश्वास खत्म कर इन्हें उनसे तोड़ने की विपक्ष की चाल बता रहा है.
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ऐसा भी नहीं है कि आरोपों का यह सिलसिला नया है या इससे पहले कभी ऐसा हुआ नहीं. लगभग हर राजनीति के केंद्र में ऐसे कई मुद्दे पक्ष-विपक्ष के लिए आरोप-प्रत्यारोप का आधार बनते रहे हैं और बनते रहेंगे. लेकिन वोटों की राजनीति इस तरह सरेआम न कर कहीं न कहीं एक सीमा रेखा रखी जाती थी. इस वाकए में यह परंपरा टूटती जान पड़ रही है. आमने-सामने, खुलेआम पक्ष-विपक्ष वोटरों के जोड़-घटाव में वोटरों का मार-काट मचाने की बात कर रहे हैं. न जनता, न राजनीति के लिए यह नई परंपरा सही कही जा सकती है.
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