यूपीए सरकार की नीतियां संदेहास्पद हैं. रुपया दिनोंदिन गिरता जा रहा है और 68 का आंकड़ा पार कर चुका है. अगर यही रफ्तार रही तो अगले एक-दो दिनों में यह 70 भी पहुंच ही जाएगा. 1991 के बाद पहली बार रुपए की वैल्यू में इतनी भारी गिरावट आई है और बिना थमे निरंतर गिरता ही जा रहा है. पर यूपीए सरकार देश को चिंतित न होने की बात कह रही है. देश की अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए आखिर क्या कर रही है सरकार कि लोगों को इस तरफ निश्चिंत हो जाना चाहिए?
अमेरिकी अर्थव्यस्था क्या संभली, भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव हिल गई. रुपए में निरंतर आ रही गिरावट तो यही दिखा रही है. विश्व बाजार में आई आर्थिक मंदी से भारत लगभग अछूता निकल गया. इसके लिए यूपीए सरकार खुद भी कितनी ही बार अपनी पीठ थपथपा चुकी है. लेकिन अब जब अमेरिकी बाजार संभलने लगे हैं तो गिरते रुपए ने भारतीय अर्थव्यवस्था के सारे पोल खोल दिए हैं.
अमेरिकी बाजार की कमजोरी का फायदा लेते हुए विदेशी निवेशकों ने भारत का रुख किया था. वैश्विक मंदी में इसने भारतीय बाजार को संभाले रखने में बड़ी भूमिका निभाई. लेकिन सामने ऐसी छवि दिखाई गई कि केंद्र सरकार की सूझबूझ पूर्ण आर्थिक नीतियों ने भारतीय बाजार को वैश्विक आर्थिक मंदी के प्रभाव में आने से बचाए रखा. लेकिन अब जब अमेरिकी बाजार संभल रहे हैं तो केंद्र की आर्थिक नीतियां कहीं नजर नहीं आ रही हैं.
डॉलर के मुकाबले 68 की सीमा पार करते पिछले 18 सालों में रुपए की यह सबसे बड़ी गिरावट रही. इस साल रुपए में रिकॉर्ड 17 प्रतिशत की गिरावट आई है. इसी साल अप्रैल महीने से डॉलर के मुकाबले लगातार आ रही रुपए में गिरावट बहस का विषय रही. सरकार बार-बार स्थिति नियंत्रण में होने की बात कहती रही. जून के अंत में रुपया 60 के करीब पहुंच गया तो बाजार को जैसे जोर का झटका लगा. किसी को रुपए के इस मुकाम पर पहुंचने की उम्मीद नहीं थी. लेकिन एक बार जो 60 की सीमा टूटी तो रुपया गिरता ही चला गया. आलम यह है कि जून के अंत में 60 के आंकड़े पर पहुंचने वाला रुपया ठीक दो महीने बाद अगस्त के अंत में 70 के आंकड़े पर पहुंचने को है. वित्त मंत्री फिर भी कह रहे हैं कि यह बहुत अधिक चिंता का विषय नहीं है और रुपए पर नियंत्रण कर लिया जाएगा.
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9 सालों से सत्ता के केंद्र में रही यूपीए सरकार ने अब तक स्थिति पर नियंत्रण क्यों नहीं किया. चलो नहीं किया, ये तो बताओ कि अब क्या कर रही है. महंगाई बढ़ती जा रही है. रुपया गिरता जा रहा है. बार-बार उठने का प्रयास करते बुए बार-बार सेंसेक्स औंधे मुंह गिरता है वह अलग, सोने-चांदी के भाव भी आंखें चौंधिया रही हैं. पिछले तीन महीनों में सोना 30 हजार का आंकड़ा पार कर 34 हजार पहुंच चुका है. चांदी तो इससे भी दो कदम आगे चलते हुए 59 हजार पहुंच चुका है. शेयर बाजार रो रहा है. इसके आंसू रुकने के कोई आसार दिख भी नहीं रहे पर वित्त मंत्री राजकोषीय घाटा 4.8 पर रहने का दावा कर रहे हैं.
स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. न आरबीआई की नीतियां गिरते हुए रुपए को संभालने और महंगाई रोकने के लिए कुछ कर पा रही हैं, न ही केंद्र सरकार की तरफ से इस गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए कोई सकारात्मक प्रयास दिख रहे हैं. अभी हाल ही में जब रुपया 65 पार कर गया तो वित्तमंत्री ने कहा कि 1991 की स्थिति इस बार नहीं आएगी. हम वैसी किसी स्थिति की संभावना से सुरक्षित हैं.सरकार का कहना है कि 1991 में हमारे पास राजकोष एक माह के आयात के लिए मात्र था जबकि अभी हमारे पास 7 महीनों के आयात के लिए पर्याप्त डॉलर हैं. अगर वास्तव में ऐसा है तो केंद्र सरकार यही सोचकर हाथ पर हाथ रखे बैठी है कि 7 महीने हम इसी तरह काम चलाएंगे. क्या उसके बाद कोई चमत्कार होगा और रुपया संभल जाएगा, महंगाई नियंत्रण में आ जाएगी और बाजार लाभ बढ़कर भारतीय अर्थव्यवस्था चमत्कारिक रूप से सुचारु रूप से चलने लगेगी? आखिर सरकार स्थिति को संभालने के लिए कर क्या रही है?
गौरतलब है कि 1991 में देश ने जो स्थिति देखी वह एक दिन या एक साल का नतीजा नहीं था. 1985 से ही देश में यह स्थिति उभरने लगी थी. लेकिन उसे नकारते-नकारते 1991 में वह स्थिति पहुंची जब भारत के पास राजकोष के नाम पर एक माह से भी कम की राशि थी. उस वक्त अंतर्राष्ट्रीय बाजार में रुपए की रिवैल्यूएशन को इसके लिए जिम्मेदार बताकर पल्ला झाड़ते हुए देश के सोने को गिरवी रखकर इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड (आईएमएफ) से कर्ज लेकर देश ने अपनी लाज बचाई. इस बार अगर अब तक स्थिति वैसी नहीं है तो अगले सात महीनों तक पहुंच तो सकती है. इस स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए तात्कालिक और दीर्घकालीन दोनों सुधारों की जरूरत है. तत्कालीन सुधारों में आज बहुत जरूरी है कि भारतीय बाजारों से दूर हो रहे विदेशी निवेशकों को बढ़ावा देने के लिए एफडीआई के कड़े नियमों को थोड़ा लचीला बनाया जाए. इसके अलावे घरेलू स्तर पर कंपनियों का घाटा कम करने और उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कंपनी लाइसेंस आदि में बदलाव की भी सख्त जरूरत है. श्रम कानून में सुधार भी सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है.
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भारतीय अर्थव्यव्यवस्था किसी भी हाल में 1991 की स्थिति दुबारा नहीं देखना चाहेगी. लेकिन सरकार की निष्क्रियता की स्थिति में वह दुबारा आए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. यह कोई नया पैदा हालात नहीं है. 2010 से इस हालात को सहते हुए अब रुपया दम तोड़ने की हालत में पहुंचा है. जब राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सरकार को उपाय करने चाहिए, सरकार खाद्य बिल में करोड़ों की राशि लगाकर इस घाटे को बढ़ाने की योजनाएं ला रही है. निष्क्रिय केंद्र सरकार और भटके हुए विपक्ष के दम पर रुपया और गिरे तो कोई बड़ी बात नहीं.
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