आज के नेताओं की जेबें नोटों से भरी रहती हैं, वह ज्यों ही अपना हाथ उठाते हैं मानों चांदी के सिक्कों की छ्नछन से पूरा कमरा गूंज उठता है. लेकिन पहले के हालात कुछ अलग ही हुआ करते थे. स्वतंत्रता की कीमत समझने वाले राजनेता, जिन्होंने खून की उस होली को अपनी आंखों से देखा था, पाकिस्तान के बंटवारे के दर्द को समझा था. शुरुआती दौर में जो नेता थे वे पैसे की कीमत और जनता के आंसुओं के पीछे छिपे उस मर्म को भली-भांति जानते थे. आज भले ही उन नेताओं के परिवार और अनुयायियों पर भ्रष्टाचार की कालिख लगती जा रही है, लेकिन उनका दामन हमेशा पाक साफ रहा है.
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) ऐसे ही एक शख्स थे जो अपनी सारी धन संपत्ति देश के नाम दान कर खुद उधार के पैसों पर जीवन जीने लगे. पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) के सचिव रहे एम.ओ. मथाई ने अपनी किताब रेमिनिसेंसेज ऑफ नेहरू एज में स्पष्ट लिखा है कि जब 1946 में वह अंतरिम सरकार में शामिल हुए थे तब उन्होंने आनंद भवन को छोड़कर अपनी सारी चल-अचल संपत्ति देश के लिए समर्पित कर दी. 1946 में उनकी जेब में कभी 200 रुपए से ज्यादा पैसे नहीं रहते थे. लेकिन भारत-पाकिस्तान बंटवारे (Indo-Pak Division) के बाद तो ये पैसे भी उनकी जेब में नहीं बचते थे क्योंकि वे पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों की सेवा में ये सारे पैसे लगा देते थे. हालांकि उस समय 200 रुपए की कीमत आज के मुकाबले बहुत अधिक हुआ करती थी लेकिन नेहरू ने कभी पैसों की परवाह नहीं की. यहां तक कि अगर उनके पास पैसे खत्म हो जाते तो वे गरीब जनता के लिए अन्य लोगों से पैसे उधार मांगने लगते.
जे.एल. नेहरू (J. L. Nehru) की इस आदत से परेशान उनके तत्कालीन सचिव मथाई ने उनकी जेब में पैसे रखवाने ही बंद करवा दिए लेकिन कहते हैं ना जहां चाह, वहां राह. जवाहरलाल नेहरू को जब पैसे मिलने बंद हो गए तो वे अपने सुरक्षा कर्मचारियों से पैसे लेने लगे.
पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) को उस समय ईमानदारी की मिसाल के तौर पर जाना जाने लगा था. मथाई ने उनके सुरक्षा कर्मचारियों को भी यह निर्देश दे दिए थे कि वह नेहरू को एक बार में 10 से ज्यादा रुपए उधार ना दें. यहां तक कि उनके सचिए एम.ओ. मथाई ने प्रधानमंत्री सहायता कोष में से कुछ पैसे निकालकर नेहरू के निजी सचिव के पास रखने शुरू कर दिए ताकि उन्हें बाहरी लोगों से पैसे उधार ना मांगने पड़े.
मथाई ने अपनी किताब में यह भी उल्लेखित किया था कि ना सिर्फ राजनैतिक जीवन में बल्कि निजी जीवन में भी उनकी ईमानदार स्वभाव का कोई मुकाबला नहीं था. पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) के सूचना अधिकारी रहे वर्तमान पत्रकार कुलदीप नय्यर के कथन पर भले ही विश्वास ना हो लेकिन सच है कि देश के पहले प्रधानमंत्री की बहन विजयलक्ष्मी पंडित (Vijaylaxmi Pandit) बेहद खर्चीले स्वभाव की थीं. एक बार शिमला दौरे पर वह वहां के सर्किट हाउस में रुकीं, जिसका किराया लगभग 2500 था. उस समय के हिसाब से यह बहुत बड़ी धनराशि हुआ करती थी लेकिन विजयलक्ष्मी को इसकी परवाह नहीं थी और उनके इसी बेपरवाह रवैये का खामियाजा नेहरू को भुगतना पड़ा था.
विजय लक्ष्मी पंडित (Vijay Laxmi Pndit) तो बिना बिल चुकाए चली आईं लेकिन उनके लौटने के बाद पंजाब ( उस समय हिमाचल प्रदेश का निर्माण नहीं हुआ था) के तत्कालीन मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर के पास राज्यपाल चंदूलाल त्रिवेदी का पत्र आया कि इस राशि को राज्य सरकार के खर्चों के भीतर समाहित कर दें लेकिन सच्चर को यह बात पसंद नहीं आई. भीमसेन सच्चर ने विजय लक्ष्मी पंडित को तो कुछ नहीं कहा लेकिन जवाहरलाल नेहरू को उन्होंने झिझकते हुए कह ही दिया कि उनकी बहन के ऊपर राज्य सरकार के 2500 रुपए बकाया हैं.
सच्चर ने पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) से पूछा कि वह इस बकाया को किस खर्चे में डालें तो प्रधानमंत्री ने उन्हें स्पष्ट कहा कि वह इस धनराशि को खुद चुकाएंगे. धनराशि ज्यादा है इसीलिए एकमुश्त तो नहीं दिए जा सकते लेकिन वह पांच किश्तों में उसे चुका देंगे और उन्होंने अपने निजी बैंक अकाउंट से पांच चेक (हर महीने का एक) काटकर सच्चर को थमा दिया.
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