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उत्तर प्रदेश की तकदीर बदलने का माद्दा रखते हैं जातिगत वोट

राजनीति की फितरत में स्थिरता नहीं है तभी तो जो कभी कट्टर दुश्मन हुआ करता था उससे अपने फायदे के लिए दोस्ती कर ली जाती है तो अपने हित साधने के बाद दोस्तों से मुंह फेर लिया जाता है. इतना ही नहीं, मुद्दा, उद्देश्य और झुकाव का रुख भी मौसम की तरह बदलता है. यह सब इतनी तेज गति से होता है कि आप अंदाजा भी नहीं लगा पाएंगे कि अब आगे क्या होगा.



बहुजन समाज पार्टी का गठन तो दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों को उच्च जातियों के शोषण से मुक्त करवा उन्हें समाज और राजनीति में सम्मानजनक स्थान दिलवाना था लेकिन दलित वर्ग के लोगों पर बसपा सुप्रीमो मायावती ज्यादा दिन तक अपना भरोसा कायम नहीं रख सकीं, उन्हें शायद यह उम्मीद नहीं थी कि अकेले दलितों का समर्थन और राज्य की ब्राह्मण समेत उच्च जातियों को अनदेखा कर वह चुनाव में जीत हासिल कर पाएंगी इसीलिए वर्ष 2007 के चुनावों से पहले मायावती ने ब्राह्मणों को भी लुभाने और उन्हीं के साथ आगे बढ़ने का फैसला कर लिया और परिणाम में उन्हें जीत ही हासिल हुई लेकिन ब्राह्मणों को लुभाने का चुनावी पैंतरा चुनाव में जीत के साथ ही शिथिल हो गया और अपने उद्देश्य पर वापस लौटते हुए मायावती ने सिर्फ दलितों पर ही ध्यान देना शुरू कर दिया. प्रोन्नति में आरक्षण का फैसला ले उन्होंने दलितों के उत्थान का तो रास्ता साफ कर दिया लेकिन ब्राह्मण, जिन्होंने बसपा को जीत दिलवाई थी, उनके लिए कोई विशेष कार्य नहीं किए जिससे ब्राह्मण उनसे खफा-खफा रहने लगे.



ब्राह्मणों को मायावती का यह बर्ताव पसंद नहीं आया और उन्होंने 2012 के चुनावों में मायावती से पल्ला झाड़ सपा का दामन थाम लिया. सपा ने मायावती की इस कमी का फायदा अपने हित में उठाया और 2012 चुनावों में बसपा को हरा दिया. सत्ता में आते ही सबसे पहले तो सपा ने प्रोन्नति में आरक्षण जैसी व्यवस्था को खत्म कर दिया जिसका सीधा फायदा ब्राह्मणों को मिला. लेकिन बसपा ने केन्द्र पर दबाव बनाते हुए दोबारा प्रोन्नति में आरक्षण को लागू करवा दिया.



खैर पूर्व में जो भी हुआ हो लेकिन वर्तमान हालातों को देखते हुए लगता है कि जहां बसपा को अपनी इस बड़ी भूल का एहसास हुआ है वहीं सपा, पारंपरिक तौर पर जिसके वोट बैंक पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक मुसलमान ही रहे हैं, की ब्राह्मणों को लुभाने की कवायद और तेज हो गई है.



उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण क्यों और कितनी अहमियत रखते हैं इसका सबसे बड़ा नमूना आजकल देखने को मिल रहा है. ब्राह्मणों को रिझाने के लिए बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश के जिलों में ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन जैसे हथकंडा अपना रही है वहीं समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणों का वोट हासिल करने के लिए प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन और परशुराम जयंती का सहारा लिया.



बहुजन समाज पार्टी के महासचिव सतीश मिश्र राज्य के ब्राह्मणों को लुभाने के लिए भरपूर मेहनत कर रहे हैं लेकिन स्थानीय ब्राह्मणों का कहना है कि चुनाव जीतने के बाद सतीश मिश्र ने सिर्फ अपने परिवार और करीबी लोगों को ही लाभ पहुंचाया है, इसीलिए उनका बसपा पर से विश्वास उठ गया है.



उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में लगभग 11 प्रतिशत मतदाता ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 25 सीटें ऐसी हैं जिन्हें सीधे तौर पर ब्राह्मण मतदाता प्रभावित करते हैं. उत्तर प्रदेश में करीब 11 फीसदी मतदाता ब्राह्मण समुदाय के हैं, यही कारण है कि आगामी चुनावों में बसपा 20 के करीब सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी उतार रही है ताकि ब्राह्मणों को रिझाया जा सके.



लेकिन उल्लेखनीय सत्य है कि परंपरागत रूप से उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण समुदाय कांग्रेस के पक्ष में रहा है लेकिन जब प्रदेश में कांग्रेस की कमान ढीली पड़ी तो ब्राह्मण वोट भी बीजेपी के पाले में आने लगे लेकिन अब जब राष्ट्रीय स्तर की दो बड़ी पार्टियां, जो सूबे में भी कई बार अपना दमखम दिखा चुकी हैं, उनसे मोहभंग होने कारण ही ब्राह्मण मतदाता सपा या बसपा में अपना विकल्प चुनने लगा है.



हालांकि जब से भाजपा ने अपनी कमान वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह के हाथों में दी है तब से प्रदेश का ठाकुर समुदाय फिर से भाजपा के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है लेकिन अगर वास्तव में ऐसा होता है और ठाकुर अपना वोट भारतीय जनता पक्ष के पक्ष में डालते हैं तो इसका सीधा नुकसान समाजवादी पार्टी को होता दिखाई दे रहा है.



बहरहाल यह समीकरण बहुत दिलचस्प है लेकिन अंत में कौन उत्तरप्रदेश की जनता को रिझा पाने में सक्षम हो पाता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन एक तथ्य जो स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस बार सभी दलों को कड़ी और बराबरी की टक्कर मिलने वाली है.



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