न्यायिक तंत्र में सुधार के लिए चाहिए लोकपाल
कोलगेट मामले की जांच में कोताही बरतने और अदालत में दायर होने से पहले हलफनामे को सरकारी नुमाइंदों से साझा करने जैसे मसले पर सीबीआई पर कड़े आक्षेप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय जांच एजेंसी को पिंजरे में बंद तोता तक कह डाला था. सुप्रीम कोर्ट के इस कथन के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने सुप्रीम कोर्ट की इस फटकार को आड़े हाथों ले यह तक कह डाला था कि ऐसा कहकर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय जांच एजेंसी की गरिमा के साथ खिलवाड़ किया है. लेकिन सवाल यहां यह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने ठीक किया या गलत, सवाल यह है कि क्या विपक्षी दल के किसी मसले की जांच में हुए हेरफेर पर अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा ही रुख अपनाता तो भी क्या दिग्विजय सिंह यही बयान देते?
राजनीतिक मसलों में जब-जब सुप्रीम कोर्ट को घसीटा जाता है उस पर कोई ना कोई आरोप हमेशा लगाए गए हैं इसीलिए यह बेहद जरूरी हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ संपूर्ण न्याय व्यवस्था को ही हर तरह से राजनीति से दूर रखा जाए और किसी भी प्रकार का राजनैतिक हस्तक्षेप उसके प्रति ना हो. क्योंकि अगर ऐसा होता है तो ना सिर्फ न्यायाधीशों की गरिमा का हनन होगा बल्कि उनके द्वारा की गई टिप्पणियां भी अपना महत्व खो देंगी.
भारत की न्यायिक व्यवस्था के लचर हालातों से सभी वाकिफ हैं इसीलिए यह भी महसूस किया जाने लगा है कि राष्ट्रीय मसलों को छोड़कर न्यायालय किसी भी मुद्दे पर गंभीरता ना रखते हुए तारीखों का सिलसिला आगे बढ़ा देता है, जिसकी वजह से आज लगभग 2.7 करोड़ केस जिला और निचली अदालतों में, 50 लाख केस उच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं यहां तक कि लगभग 50,000 मामले तो सुप्रीम कोर्ट में जाने की ही राह देख रहे हैं.
अभी कुछ दिनों पहले पंजाब की अदालत के एक फैसले को अविवेकी और बिना किसी वजह से स्थगित करते रहने पर अपनी प्रतिक्रिया सुनाते हुए सुप्रीम ने इसे चिंतनीय और कष्टप्रद कहा है, जिसमें पंजाब की एक महिला को उसके ससुरालवालों ने जलाकर मार डाला और गवाहों का परीक्षण करने में ही अदालत ने 2 साल का समय ले लिया.
उपरोक्त बेहद दुखद आंकड़ों की हालत में भी उल्लेखनीय है कि जिला न्यायालयों में लगभग 3,422 और उच्च न्यायालय में 276 नियुक्तियां अभी की ही नहीं गईं जिसकी वजह से यह स्थान अभी रिक्त हैं. इसके अलावा देश के 6 उच्च न्यायालय बिना किसी चीफ जस्टिस के ही चल रहे है क्योंकि अभी तक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों द्वारा उनकी नियुक्ति की सिफारिश ही नहीं की गई है.
दूसरे प्रशासनिक सुधार कमीशन की रिपोर्ट में मुखर रूप से कहा गया कि “न्यायिक नियुक्तियों के क्षेत्र में भारत अकेला ऐसा देश है जहां इन नियुक्तियों में न्यायिक नियंत्रण रहता है. विश्व के किसी भी अन्य देश में न्यायपालिका खुद की नियुक्ति नहीं करती.” न्यायिक व्यवस्था में दूसरी सबसे बड़ी समस्या है व्यवस्था के भीतर ही भ्रष्टाचार का आगमन और इस पर भले ही आम जनता का ध्यान ना गया हो लेकिन पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया वी.एन. खरे ने यह स्वीकार किया है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार बहुत तेजी से अपने पांव पसार रहा है और बेल देने के लिए घूस लेना आम होता जा रहा है. इसका कारण यह भी है कि उच्च न्यायालयों के जजों को सिर्फ महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है और इस महाभियोग की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आज तक किसी जज पर महाभियोग चलाया ही नहीं जा पाया है.
न्यायिक व्यवस्था में सुधार जैसा मुद्दा पिछले काफी समय से सुनाई देता रहा है लेकिन अब हालात गंभीर हो गए हैं इसीलिए यह एक बड़ी जरूरत बन गई है. हालांकि अब इस क्षेत्र में सुधार किए जाने की पहल की जा चुकी है जिसका पहला उदाहरण न्यायिक मानक और उत्तरदायित्व विधेयक (Judicial Standards and Accountability Bill) है. लेकिन हकीकत यही है कि यह पहल भी अविवेचित और दूरगामी प्रभाव ना छोड़ने वाली है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इसका पूरा ढांचा सिर्फ शिकायत करने पर ही निर्भर है और भारत में शिकायतें सुनी ही कहां जाती हैं.
न्यायिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए जरूरी है न्यायपालिका खुद अपने दायित्वों के प्रति सचेत होकर अपने लिए ही लोकपाल का गठन करे जिसके पास तहकीकात और अभियोग की शक्तियां हो और जो पारदर्शिता के साथ कार्य करे. न्यापालिका को चाहिए कि वह स्वीकार करे कि स्वतंत्रता और जवाबदेही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. अगर आपको स्वतंत्र रखा गया है तो लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ होने की वजह से आप बहुत से लोगों के लिए स्वयं जवाबदेह हो जाते हैं.
Read Comments