राष्ट्रीय प्रतीक देश को धार्मिक और जातिगत भेदों से मुक्त कर एकजुट करने का प्रयास करते थे, उन्हें अपनाने का उद्देश्य आम जन में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार करना था लेकिन किसे पता था कि यही राष्ट्रीय प्रतीक धर्म के आधार पर हमें एक-दूसरे से बांटने लगेंगे और अब जब यह बांटने लगे हैं तो निश्चित तौर पर भारत की धर्मनिरपेक्षता, अखंडता और एकता, जिस पर हम गुमान करते हैं, उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है.
हाल ही की घटना है जब लोकसभा में राष्ट्रगीत चलाया गया तो बसपा के एक मुस्लिम सांसद शफीकुर्रहमान बर्क सदन से बाहर चले गए. जहां वंदेमातरम की धुन बजते ही सभी सांसद अपनी-अपनी जगहों पर खड़े हो गए वहीं शकीकुर्रहमान को अपनी सीट छोड़कर बाहर जाते देखा गया.
उल्लेखनीय है कि जब सदन को अनिश्चितकालीन तौर पर स्थगित किया जाता है तब वहां वंदेमातरम की धुन बजती है और जैसे ही यह धुन बजी बर्क उठकर चले गए.
इस घटना के बाद लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार का कहना था कि “एक माननीय सांसद वंदे मातरम की धुन बजने के दौरान सदन से बाहर चले गए. मैंने इसका गंभीर संज्ञान लिया है. मैं जानना चाहूंगी कि ऐसा क्यों किया गया. ऐसा आगे कभी भी नहीं होना चाहिए.”
अपनी सफाई देते हुए बर्क का कहना था कि वंदे मातरम विशिष्ट धर्म से प्रेरित गीत है और यह इस्लाम के खिलाफ है इसीलिए वो सदन से उठकर बाहर चले गए. इतना ही नहीं बर्क का यह भी कहना था कि उन्होंने ऐसा कर कोई गलती नहीं की और अगर भविष्य में भी कभी ऐसे हालात सामने आए तो भी वो ऐसा ही करेंगे.
बसपा के विधायक की इस हरकत पर जहां पार्टी की ओर से कोई टिप्पणी नहीं की गई है वहीं भाजपा ने इसे गंभीर मुद्दा बना लिया है.
उल्लेखनीय है कि यह पहला ऐसा मुद्दा नहीं है जब भारत के राष्ट्रगीत को ऐसे विवादों का सामना करना पड़ा. इससे पहले भी राष्ट्रगीत की शताब्दी के मौके पर कई इस्लामी शिक्षण संस्थानों ने इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लिया. इसका कारण यह बताया गया कि वंदे मातरम एक धार्मिक श्लोक है और इसका गायन इस्लाम की नजर में प्रतिबंधित है और अगर किसी भी मुस्लिम को इसका गायन करने के लिए बाध्य किया गया तो यह सहन नहीं किया जाएगा.
ऐसे ही कई बार हुआ है जब धर्म को तवज्जो देकर विशिष्ट समुदायों द्वारा राष्ट्रीय प्रतीकों की अवहेलना की गई है. जाहिर सी बात है राष्ट्रीय प्रतीकों का निरादर देश की एकता और अखंडता को प्रभावित करने वाला है.
संविधान निर्माताओं ने हर संभव प्रयत्न कर भारत को धर्म के बंधन से मुक्त रखने की तमाम कोशिशें की लेकिन दुख बस इतना है कि देश की राजनीति को धर्म से अलग आज तक नहीं किया जा सका. निश्चित तौर पर इसके परिणाम घातक सिद्ध हो सकते हैं. देश हित के स्थान पर संप्रदायों के हितों को बढ़ावा देना कभी किसी देश की तरक्की का सबब नहीं बना इसीलिए ऐसे हालातों पर नियंत्रण पाना बहुत जरूरी है.
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