भारत का संविधान हर भारतीय नागरिक को कुछ मौलिक अधिकार और कर्तव्यों से आभूषित करता है. इन्हीं में एक है बोलने का अधिकार या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो लोकतंत्र में सत्ता और हर वर्ग के नागरिक को समान मानते हुए उसे अपनी बात कहने का अधिकार देती है चाहे वह किसी के पक्ष में हो या विरोध में. मौलिक अधिकारों की यह परिभाषा 80 के दशक के बाद स्थायी तौर पर आज तक चली आ रही और आगे भी चलेगी, लेकिन 80 के दशक तक एक ऐसा भी वक्त था जब ये नागरिक अधिकार अधर में पड़ गया था. केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार ऐसा ही केस था जो लोकतंत्र की वास्तविक परिभाषा को कायम रखने में मील का पत्थर साबित हुआ, वरना शायद आज हम इतनी आजादी से सरकार और किसी और के विरुद्ध भी अपनी बात नहीं कह पाते, अन्ना हज़ारे का आंदोलन, धरना नहीं हो पाता, सूचना के अधिकार की परिकल्पना भी अपराध होता.
घटते मानवीय मूल्यों के बीच बढ़ती सामाजिक हिंसा
केशवानंद केस की शुरुआत एक प्रकार से 1967 में ही गोलकनाथ केस के दौरान हो चुकी थी. आर्टिकल 368 संसद में संविधान के किसी भी अनुच्छेद या धारा में संशोधन की आजादी देती थी जिसके कोई नियामक तय नहीं थे. यह संसद को असीमित शक्तियां प्रदान करता था. गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि संसद को नागरिकों के किसी भी मौलिक अधिकार में संशोधन का अधिकार नहीं है. 1969 में इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका की शक्तियां कम करने और संसद को सर्वोच्च बनाने के लिये अनुच्छेद 368 में संशोधन किया और गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कम कर दिया. केशवानंद जो केरल के एक मठ के मुखिया थे, ने 1973 में संविधान के संशोधन की सीमा क्या होनी चाहिये इस सवाल के साथ केरल उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें कोयला, चीनी और अन्य कंपनियों के मालिक भी उनके साथ थे. 24 अप्रैल, 1973 को 1975 में इमर्जेंसी के दौरान 39वें और 42वें संशोधनों के बाद यह केस अधर में लटका रहा. 31 अक्टूबर, 1972 से 23 मार्च, 1973 तक 68 दिनों तक सुनवाई चलने के बाद 24 अप्रैल, 1973 को मुख्य न्याधीश सीकरी और सुप्रीम कोर्ट के 12 जजों के पैनल ने फैसला सुनाया कि संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है लेकिन उस सीमा तक कि यह इसके मूल रूप को प्रभावित न करे. इसने यह भी कहा कि संसद नागरिकों के मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकता. यह फैसला एक प्रकार से सत्ता और न्यायलिका के बीच सीधी नोंकझोंक के समान थी. जहां सत्तापक्ष किसी भी रूप में संशोधन के हक में था, न्यायपालिका इसके मौलिक रूप को प्रभावित करने से इनकार करती थी. जजों के पैनल में से कई जज इसके पक्ष में नहीं थे क्योंकि उनका मानना था कि यह संविधान हमारी संविधान निर्माताओं की मूल कल्पना नहीं थी, यह ब्रिटिश संविधान से प्रभावित थी और अंग्रेजों द्वारा जबरदस्ती हम पर थोपी गयी थी. लेकिन 7:3 के मतदान से जिसमें 7 ने संविधान संशोधन की सीमा होने के पक्ष में मतदान किया, यह फैसला सुनाया गया.
घटते मानवीय मूल्यों के बीच बढ़ती सामाजिक हिंसा
इस फैसले के कुछ साल बाद ही इंदिरा गांधी ने विधायिका को सर्वोच्च शक्ति बनाने के लिये 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा आर्टिकल 368 में बदलाव करते हुए संसद को संविधान के किसी अनुच्छेद और धारा में संशोधन का अधिकार प्रदान किया. इससे पहले 1975 में जब इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को नीतिसम्मत न मानते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में राज नारायण द्वारा चुनाव में अनैतिकता का सहारा लेने का आरोप लगाते हुए चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत को चुनौती दी और इलाहाबाद कोर्ट ने इसके पक्ष में फैसला देते हुए श्रीमती गांधी को लोकसभा और प्रधानमंत्री पद से हटने का फैसला सुनाया, तो इमरजेंसी लागू करते हुए आनन-फानन में श्रीमती गांधी ने 10 अगस्त, 1975 को संविधान का 39वां संशोधन पारित किया. इस संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राज्यपाल की नियुक्ति को चुनौती नहीं दी जा सकती थी. इतना ही नहीं कार्यकाल के समाप्त होने के बाद भी कभी भी उन पर कोई मुकदमा चलया नहीं जा सकता था. मतलब अगर कोई एक दिन के लिए भी राज्यपाल, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनता है तो पूरी उम्र उस पर किसी भी प्रकार का मुकदमा चलाया नहीं जा सकता. साथ ही संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति केवल प्रधानमंत्री की सलाह से काम कर सकता था और राष्ट्रपति शासन का कार्यकाल 6 महीने से एक साल तक हो सकता थ. इन दोनों संशोधनों से संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों की मूल भावना बदलने वाली थी. इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट में 8 नए जजों की नियुक्ति की गई जिसमें मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे ने केशवानंद केस पर दुबारा विचार करने की पेशकश करते 13 जजों के नये पैनल की नियुक्ति की. वकील पालखीवाला ने यह तर्क दिया किया कि यह पुनर्विचार मान्य नहीं है क्योंकि किसी ने भी इसके लिये पुनर्विचार याचिका दायर नहीं की है. इस प्रकार यह केस यहीं खत्म हो गया और हमारा लोकतंत्र नागरिक अधिकारों के हनन से बच गया.
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24 अप्रैल, 2013 को केशवानंद केस में फैसले के पूरे 40 साल पूरे हो गये पर हममें से शायद बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी कि ऐसा भी कभी हुआ था और अगर केशवानंद, पालकीवाला नहीं होते तो आज हम अपने अधिकारों की बात इतनी स्वतंत्रता से नहीं कर पाते. देश की आजादी के लिये लड़ने वाले क्रांतिकारियों और हमारे संविधान निर्माताओं को तो हम जानते हैं और उनकी देशभक्ति के कायल भी हैं पर आजाद भारत में हमारे अधिकारों की रक्षा करने वाले केशवानंद और पालखीवाल की देशभक्ति उनसे कम नहीं है.
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