नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए भाजपा को अस्पष्ट शब्दों में यह तो बता दिया कि नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा. नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक नेता करार देते हुए बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने उन्हें अयोग्य साबित किया था जिसके बाद भाजपा और जेडीयू के बीच की खाई और अधिक बढ़ती नजर आ रही है. भाजपा ने यह साफ कर दिया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी भाजपाई सदस्य को सांप्रदायिक कहता है तो वह सिर्फ उस व्यक्ति पर नहीं बल्कि पार्टी पर आक्षेप लगा रहा है और अगर जेडीयू ऐसा कर रहा है तो अगर जनता दल यूनाइटेड गठबंधन से खुद को अलग करना चाहती है तो हो जाए हम अपने 17 साल पुराने साथी को बेइज्जत कर नहीं कर सकते.
जाहिर है यह कहकर भाजपा ने जनता दल यूनाइटेड के गठंबधन से बाहर जाने के लिए रास्ते खोल दिए हैं. लेकिन यहां मसला यह नहीं है कि आखिर क्यों मात्र नरेंद्र मोदी को अपने साथ रखने के लिए भाजपा अन्य सहयोगी दलों से दूरियां बढ़ाती जा रही है, बल्कि मसला यह है कि अगर जेडीयू खुद को राजग अर्थात भाजपा से अलग कर लेता है तो क्या नीतीश कुमार आगामी लोकसभा चुनावों में वही करिश्मा दिखा पाएंगे जो उन्होंने वर्ष 2009 में दिखाया था?
अगर नीतीश कुमार आगामी चुनावों में भाजपा के सहयोग के बिना चुनावी मैदान में उतरते हैं तो वे मतदाताओं को प्रभावित करने में किस सीमा सफल हो पाएंगे यह थोड़ा संदेहास्पद है. जिन महादलितों और अति पिछड़े वर्गों को हथियार बनाकर नीतीश ने अपने स्पेशल एजेंडे की शुरुआत की थी जातिगत स्थिति के आधर पर अगर उनका प्रतिशत देखा जाए तो वह बहुत कम है. जबकि लालू प्रसाद यादव जिस वोटबैंक के आधार पर चुनाव जीतते हैं वह है M-Y अर्थात मुस्लिम-यादव वोटबैंक. इसके विपरीत नीतीश कुमार की अपनी जाति कुर्मी का भी बिहार में प्रतिशत कुछ ज्यादा प्रभावित करने वाला नहीं है.
वहीं दूसरी ओर सवर्ण वोटर जो कि बिहार की राजनीति में हमेशा से ही प्रमुख भूमिका निभाता है उसका झुकाव भाजपा की तरफ रहा है और इस बार भी भाजपा की ही तरफ रहने की उम्मीद है. संभावित तौर पर कहा जा सकता है कि बिहार के सवर्ण वोट भाजपा की ही झोली में जाकर गिरेंगे. बिहार में जेडीयू-भाजपा गठबंधन की वजह से जो भी वोट इन दो दलों को पृथक-पृथक तौर पर मिलते थे उसका दोनों को ही फायदा मिलता था इसीलिए अगर यह गठबंधन टूटता है तो इसका नुकसान भी दोनों को ही उठाना पड़ेगा. हालांकि भाजपा काफी विशाल और राष्ट्रीय पहचान वाली पार्टी है इसीलिए जाहिर तौर पर यह नुकसान जेडीयू को ज्यादा वहन करना पड़ सकता है.
नीतीश जिस आधार पर भाजपा के साथ अपने संबंध तोड़ना चाह रहे हैं वह सिर्फ धर्मनिरपेक्षता का ही एजेंडा है. इस एजेंडे के लिए उन्होंने निशाना भी सिर्फ नरेंद्र मोदी को ही बनाया है इसीलिए यह कहना सही होगा कि नरेंद्र मोदी की वजह से ही नीतीश भाजपा का दामन छोड़ने की धमकियां दे रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि अगर मोदी को उम्मीदवार नहीं बनाया गया तो राजग गठबंधन में उन्हें स्वीकार कर जनता उन्हें ही वोट देगी जो साफतौर पर उनके अति-आत्मविश्वास को दर्शाता है. नीतीश को शायद यह लगता है कि मोदी का विरोध करने से मुस्लिम वोटरों में उनकी छवि अच्छी बन जाएगी किंतु शायद वह भूल रहे हैं कि मुस्लिम वोटर तो कभी भी उनके साथ नहीं था और जब तक वह एनडीए के साथ हैं मुसलमानों को लुभाना उनके वश से बाहर की चीज है. नीतीश कुमार भाजपा के किसी अन्य वरिष्ठ सदस्य जैसे आडवाणी, सुषमा आदि किसी को भी स्वीकार करने के लिए तैयार हैं जबकि उनका विरोध सिर्फ नरेंद्र मोदी को लेकर है. लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को निशाना बनाते-बनाते वह भाजपा की छवि के साथ छेड़छाड़ करने का भी दुस्साहस कर रहे हैं जिसका खामियाजा उन्हें कभी भी भुगतना पड़ सकता है.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चुनावों में भले ही कितने ही राजनीतिक दल अपनी किस्मत आजमाने मैदान में उतरते हैं लेकिन युद्ध हमेशा देश की दो बड़ी और प्रमुख पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता है. हालांकि अब किसी एक दल की सरकार बनना असंभव सा ही प्रतीत होता है लेकिन जीत दर्ज करने के बावजूद देखा यही जाता है कि हर क्षेत्रीय और छोटे दल को खुद को इन दो पार्टियों के साथ हाथ मिलाना ही पड़ता है. एक समुद्र की भांति यह दो दल अपनी पहचान बनाए हुए हैं जिनमें छोटी-छोटी नदियां अर्थात दलों, जिनकी अपनी व्यक्तिगत छवि मजबूत नहीं होती, को चाहे-ना-चाहे इस समुद्र में आकर मिलना ही पड़ता है. इससे समुद्र को तो ना किसी प्रकार का नुकसान होता है और ना ही फायदा लेकिन सत्ता में शामिल होने के लिए उन छोटे दलों को कुछ समझौतों और कुछ मतभेदों के बावजूद गठबंधंन करना ही पड़ता है और वैसे भी इस बार बात विधानसभा चुनावों की नहीं है जो किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित होकर रह जाए बल्कि इस बार परीक्षा राष्ट्रीय स्तर की है. इसीलिए ऐसे मौके पर खुद को एक राष्ट्रीय पार्टी से अलग करना कहीं जेडीयू के लिए नुकसानदेह न साबित हो जाए.
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