राजनीति में कोई किसी का नहीं होता. आज जो दुश्मन है कल को वही दोस्त बन जाए किसे पता और आज जो खुद को दोस्त, हमसफर कहते नहीं थकता कब अपना दामन छुड़ाकर चला जाए किसे पता. आज ऐसा ही कुछ हाल भारत की सरकार का है जिसके सभी घटक दल एक-एक करके उसका साथ छोड़कर जाते जा रहे हैं. आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले एक साल में यूपीए के पांच साथियों ने इस गठबंधन को अलविदा कह दिया. कभी कांग्रेस के मुख्य समर्थक कहे जाने वाले दल तृणमूल कांग्रेस और डीएमके ने भी अपनी राह अलग कर ली है. कांग्रेस की नीतियों और उसकी अपनी प्राथमिकताओं से तंग आकर ममता बनर्जी और करुणानिधि ने खुद को उनसे अलग घोषित कर दिया.
लेकिन डीएमके के खुद को यूपीए से अलग कर लेने के बाद कांग्रेस और यूपीए सरकार में हलचल मच गई है. कांग्रेस आलाकमान और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी स्वयं इस बात से चिंतित दिखाई दे रही हैं और उन्होंने पुराने साथी डीएमके को खुश करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं.
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राजनैतिक समीकरणों और मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि शायद द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) की मांगों पर अमल करने की पृष्ठभूमि तैयार कर ली गई है. उल्लेखनीय है कि डीएमके प्रमुख करुणानिधि की मांग थी कि श्रीलंका में रहने वाले अल्पसंख्यक तमिलों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ ना सिर्फ संसद में आवाज उठाई जाए बल्कि श्रीलंका के खिलाफ एक ड्राफ्ट तैयार कर संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष रखा जाए.
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शायद डीएमके को खोने का डर इस कदर कांग्रेस आलाकमान पर हावी हो गया है कि डीएमके द्वारा गठबंधन से त्यागपत्र देने के बाद सोनिया गांधी ने संसद में यह भाषण देते हुए कहा कि श्रीलंकाई तमिलों के साथ हो रहे अत्याचारों का हम विरोध करते हैं. पीड़ितों के प्रति हम अपनी संवेदनाएं रखते हैं.
इतना ही नहीं सोनिया का यह भी स्पष्ट कहना था कि श्रीलंका में हुए मानवाधिकार उल्लंघन के विरुद्ध हम स्वतंत्र और विश्वसनीय जांच की भी मांग करते हैं. श्रीलंकाई तमिलों के राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों के हनन का मुद्दा भी गंभीर है. आलकमान का कहना था कि भारतीय मछुआरों की हत्या और उनके साथ आए दिन होने वाली हिंसा का स्थायी हल निकाले जाने की आवश्यकता है.
वर्तमान हालातों के मद्देनजर देखा जए तो भारत की राजनीति पूरी तरह स्वार्थ से लिप्त हो चुकी है. लेकिन सवाल यह उठता है कि अपने स्वार्थ और हितों की पूर्ति के लिए क्या भारत की विदेशनीति, जो साफ कहती है कि किसी भी राष्ट्र के अंदरूनी मामलों के साथ हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, के साथ खिलवाड़ करना सही ठहराया जाएगा?
देश नहीं आलाकमान के प्रति वफादारी का इनाम !!
श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश के अंदरूनी घटनाक्रमों में अगर हम दखलंदाजी करेंगे वो भी किसी एक क्षेत्रीय दल के दबाव में आकर, तो निश्चित है इससे भारत-श्रीलंका संबंधों में कड़वाहट आएगी.
अभी हाल ही में अफजल की फांसी के विरोध में पाकिस्तान की संसद में भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाया गया था. पाकिस्तान की इस हरकत की हमने कटु आलोचनाएं की थीं. अब हम खुद वहीं चीजें दोहराकर दूसरा पाकिस्तान बनने की फिराक में क्यों हैं?
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