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विकास चाहिए तो धर्म की राजनीति छोड़ो

भारतीय संविधान में भारत को पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश की संज्ञा से ना सिर्फ नवाजा गया है बल्कि उन सभी कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को निभाने का संकल्प भी लिया गया है जिससे धर्म के आधार पर देश के खंडन को रोका जा सके. लेकिन वह शख्स जो यूं तो पहले से ही सांप्रदायिक होने जैसे ‘अलंकारों’ से शोभित है और अब जब उसे देश के अगले प्रधानमंत्री के पद का मुख्य दावेदार समझा जा रहा है तो उससे उम्मीद की जा रही थी कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों को गलत साबित कर धर्मनिरपेक्षता के भावों को अपना कर देश की प्रगति की तरफ ध्यान दे. यहां हम बात कर रहे हैं गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री और अपने क्षेत्र के कर्णधार नरेंद्र मोदी की, जो एक लंबे अरसे बाद आज भी गुजरात दंगों से जुड़े आरोपों को झेल रहे हैं.


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नरेंद्र मोदी के विरोधी उन्हें सांप्रदायिक मानते हैं और इसी आधार पर वे उन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य मानने से भी इंकार करते रहे हैं. लेकिन नमो-नमो कहां पीछे रहने वाले थे हालांकि उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को नकारा तो नहीं लेकिन उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की ऐसी परिभाषा पेश की जिसके बाद शायद उनके विरोधी एक बार फिर सोचने लगेंगे कि धर्म को विकास की राह के आड़े आने देना चाहिए या नहीं.


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अमेरिका और कनाडा में बसे भारतीयों को वीडियो कॉंफ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार के रूप में उभर रहे नरेंद्र मोदी का कहना था कि किसी भी धर्म, संप्रदाय का पालन करने से पहले देश हित और विकास के बारे में सोचना चाहिए. मोदी का कहना था कि सांप्रदायिकता के आरोपों से जूझने के बाद भी उन्होंने विकास की राह को पकड़ा जिसके मद्देनजर आज उनका राज्य देश के अन्य राज्यों के मुकाबले कहीं ज्यादा विकसित और स्वच्छ है.


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एक घंटे लंबे भाषण में विदेश में बसे भारतीयों तक अपने विचार पहुंचाते हुए नरेंद्र मोदी ने यह स्पष्ट किया कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ और उसकी जरूरत सिर्फ और सिर्फ देश के विकास से ही जुड़ी हुई है. अपेक्षित धर्मनिरपेक्षता का अर्थ वही है जिससे भारत का विकास हो और अन्य सभी धारणाएं फिजूल हैं.

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नरेंद्र मोदी का वक्तव्य था कि देश सभी धर्मों और विचारधाराओं से ऊपर है. हमारा लक्ष्य भारत की तरक्की होना चाहिए, अगर हम ऐसा करते हैं तो धर्मनिरपेक्षता स्वत: हमसे जुड़ जाएगी.



उल्लेखनीय है पिछली बार जब अमेरिका के वार्टन इंडिया इकोनॉमिक सम्मेलन में विरोध और मतभेदों के बाद मोदी के भाषण को रद्द कर दिया गया तब इसके जवाब में ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी द्वारा यह कार्यक्रम आयोजित किया गया.


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मोदी का कहना था कि दुनियां 21वीं सदी के भारत की ओर नजर टिकाए बैठी है और अब इससे सिर्फ और सिर्फ विकास की ही अपेक्षा की जा रही है. अगर विकास की राह में कोई भी बाधा आती है तो उसे समाप्त किया जाना ही एक सही निर्णय है.



मोदी का वक्तव्य, उनकी कथनी और विचारधाराएं निश्चित तौर पर भविष्योनमुखी हैं. लेकिन जैसा कि हम सभी जानते और समझते हैं कि राजनीति पर धर्म और धर्म पर राजनीति हमेशा हावी रहे हैं. दोनों को एक-दूसरे से अलग कर पाना वर्तमान समय के लिहाज से तो बहुत मुश्किल ही कहा जाएगा क्योंकि आज भी हमारी सियासत सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ सिद्धि का ही एक माध्यम बनी हुई है जिसके परिणामस्वरूप देश का विकास तो दूर बल्कि इस विकास की गति ही बहुत धीमी हो गई है.



हालांकि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का एक जरूरी और महत्वपूर्ण अंग है लेकिन इसकी जरूरत भी तब पड़ती है जब हम धर्म को अन्य सभी घटकों से ज्यादा अहमियत दें. जब विकास और एकता की राह में धर्म कोई महत्व ही नहीं रखेगा तो जाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता अपना महत्व खो देंगे.


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