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फेल हुई कांग्रेस की रणनीति और गेंद आ गई भाजपा के पाले में

4 अगस्त, 2005 के दिन संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू को फांसी की सजा सुना दी गई और नवंबर 2006 में अफजल गुरू की ओर से दया याचिका भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के पास भेजी गई. इस बीच अफजल और उसका परिवार हर दिन बस इसी डर के साये में जिया कि ना जाने उस दया याचिका पर राष्ट्रपति कैसी प्रतिक्रिया देंगे.


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लेकिन अचानक ही 9 फरवरी, 2013 की सुबह अफजल गुरू को बिना किसी पूर्व सूचना के फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया. संसद पर हमले के पीड़ितों को इससे थोड़ी राहत जरूर मिली लेकिन अफजल के परिवार और उसके शुभचिंतकों के लिए यह एक बड़ा झटका था. अफजल को फांसी हो जाने के बाद ऐसा लग रहा था कि जैसे भाजपा, जिसके लिए अफजल की फांसी आगामी चुनावों में कांग्रेस के विरुद्ध प्रयुक्त होने वाला एक बड़ा हथियार था, से उसका जैकपॉट मुद्दा छिन गया हो और कांग्रेस के लिए जीत की तरफ का रास्ता साफ हो गया हो.


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लेकिन कहते हैं ना राजनीति कब अपना रंग बदल ले कोई यह अनुमान तक नहीं लगा सकता. इस मसले पर भी कुछ ऐसा ही हुआ, क्योंकि फिर एक बार गेंद भाजपा के पाले में आ गिरी है.


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‘अफजल गुरू की दया याचिका को 6 साल बाद राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया’ यह खबर 3 फरवरी, 2013 को उसी दिन सार्वजनिक हुई जिस दिन अफजल को फांसी दी गई. अफजल के परिवार और मीडिया से जानबूझकर यह खबर छिपाई गई क्योंकि अगर यह खबर बाहर आ जाती तो फांसी की सजा में देरी होने के कारण यह एक विचाराधीन न्यायिक मसला बन जाता. निश्चित तौर पर केन्द्रीय सरकार को यह मंजूर नहीं हुआ क्योंकि उनकी रणनीति के अनुसार उस समय अफजल को फांसी मिल ही जानी चाहिए थी.


लेकिन अब यह कांग्रेसी रणनीतिकारों की बेवकूफी कहें या फिर भाजपा का गुडलक कि फिर से यह मसला विवादित बनकर भाजपा के समर्थन में आ गया है. कांग्रेस को मुस्लिम परस्त पार्टी माना जाता है, जो अधिकांशत: मुसलमानों के ही समर्थन में दिखाई देती है, और इसी खूबी की वजह से अभी तक मुसलमान कांग्रेस को अपना मसीहा मानकर चलते आए हैं जबकि भाजपा को एक कट्टर हिंदूवादी पार्टी माना जाता है.


लेकिन अफजल की फांसी ने कांग़्रेस के मुस्लिम वोटबैंक को करारा झटका पहुंचाया और साथ ही भाजपा के लिए जल्दबाजी में हुई यह फांसी एक हथियार के रूप में मिल गई है जो एक बड़ा चुनावी मुद्दा साबित हो सकता है.


अपने आपको साबित करने का वक्त है यह

इतना ही नहीं अफजल का शव तिहाड़ जेल परिसर में ही दफनाया गया है और परिवार को यह शव सौंपे जाने का मसला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, जबकि अफजल के शव को कश्मीर ले जाने के लिए प्रदर्शन और धरने शुरू हो चुके हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मसले पर सब कुछ सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ देना चाहते हैं. निश्चित ही यह कांग्रेस के लिए एक बार फिर गहरी खाई बनकर उभरेगा क्योंकि जब अगली बार यानि 2013 में लोकसभा चुनाव होंगे उसमें कश्मीर की जनता कांग्रेस के पक्ष में वोट डालेगी यह संभावना तो लगभग-लगभग समाप्त ही हो चुकी है.


खैर जो भी हो लेकिन अफजल गुरू प्रशासन की मार से त्रस्त एक जेहादी था, जिसने संसद पर हमला कर एक नापाक काम किया था, लेकिन एक इंसान की मौत पर अपने फायदे के लिए राजनैतिक रोटियां कैसे सेंकनी हैं यह तो सिर्फ हमारे राजनेता ही जानते हैं.


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