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ये है राजनैतिक झंझावातों का संक्रमणकालीन दौर

भारतीय राजनीति उस दौर से गुजर रही है जहां कोई भी बात निश्चित नहीं है. यहां समय-समय पर बदल रहे राजनैतिक आंकड़े यहां की राजनीति पर हजारों सवाल खड़े कर रहे हैं. बीच के दिनों में आई खबरों के अनुसार यह कहा जा रहा था कि आने वाले चुनाव में तीसरे मोर्चे की सरकार बनने के प्रबल आसार दिखाई दे रहे हैं पर इस समय यह रास्ता पूरी तरह से बन्द दिख रहा है. भाजपा का बढ़ता प्रभाव और कांग्रेस के ऊपर लग रहे निरंतर दाग इस बात को पूरी तरह से खारिज करती है कि आने वाले समय में तीसरे मोर्चे वाली सरकार देखने को मिलेगी.


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समीकरण में उलझती राजनीति

भारत की राजनीति पूरी तरह से समीकरण में उलझती हुई नजर आ रही है. जहां एक तरफ यह बोला जा रहा है कि संप्रग सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी वहीं दूसरी तरफ भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू का यह कहना है कि इसी वर्ष चुनाव होने के आसार दिखाई दे रहे हैं. यह बात खुल कर सामने नहीं आ पा रही है कि किस प्रकार की राजनीति अपना दस्तक देगी और आने वाले समय में उससे देश के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा? जहां कांग्रेस के चिंतन शिविर में यह बात खुल कर सामने आई कि कांग़्रेस अब अपना पूरा ध्यान जनता के साथ सीधे सम्पर्क साधने में लगाएगी वहीं भाजपा की राजनीति भी कुछ इसी तरह के लक्षण देती हुई नजर आ रही है. दागदार नितिन गडकरी को हटा कर राजनाथ सिंह को भाजपा का अध्यक्ष बनाना कहीं ना कहीं इस बात की ओर इशारा करता है कि भाजपा भी अपने आंतरिक कलह को समाप्त करना चाहती है. जिस प्रकार बीजेपी की राजनीति दिन प्रतिदिन लोगों की नजरों से दूर होती जा रही थी उसके बिखराव पर रोक लगा कर दल को एक सशक्त दिशा प्रदान करना और 2014 के चुनाव में अपनी भागीदारी को मजबूत बनाना ही राजनाथ सिंह को इस पद पर लाने का सबसे प्रमुख कारण था.


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संकट में राजनैतिक दल

राजनैतिक तौर पर देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि भारत के दोनों प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा अपनी-अपनी मजबूरियों से परेशान हैं, भले ही उनकी तरफ से यह दावा किया जाता रहा है कि वो अपने तौर पर सशक्त राजनीति और जनता के साथ सीधे सम्पर्क साधने में सफल रहे हैं पर मूल रूप से यह देखने को मिला है कि केन्द्र बिंदु पर दोनों दल नाकाम ही रहे हैं. गठबंधन की क्रियाशीलता कुछ ऐसी है जहां विश्वास का कोई प्रयोजन ही नहीं है. उपरी दिखावट और आतंरिक सच्चाई के अंतर को स्पष्ट करना बड़ा ही मुश्किल काम है. मौजूदा राजनैतिक समीकरणों में संक्रमण हो गया है और ये संक्रमण इतना व्यापक है कि इसे अगर बढ़ने से ना रोका जाये तो ये कभी ना कभी पूरे लोकतंत्र को खोखला कर देगा.


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आज की मांग भी विचित्र हो गयी है. छोटी से छोटी बात पर समर्थन वापस लेना और किसी मांग को मनवाने के लिए ब्लैकमेल करना ही आज की राजनीति है. पूर्ण स्वतंत्र राजनीति के सूत्रधार अपने कर्तव्यों से ज्यादा अपने आप को स्थाई रखने पर ध्यान दे रहे हैं.  मनीष तिवारी का यह कहना कि सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी पर वहीं दूसरी तरफ भाजपा के विशिष्ट नेता वेंकैया नायडू का यह कहना है कि चुनाव के जल्दी होने के आसार पूरी तरह से साफ दिखाई दे रहे हैं. इस हालात में यह देखने वाली स्थिति होगी कि किस प्रकार राजनैतिक दल अपना हित साधने के दौरान देश की राजनीति को भी सुधारने का काम करेंगे और यह आने वाले समय के लिए एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न है.



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