भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आजादी के लिए लड़ने वाले नेताओं के अलावा अगर कोई और प्रसिद्ध है तो वह लोग जो समाज को सुधारने का बीड़ा उठाए हुए थे. जहां एक तरह कुछ नेता देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाए हुए थे वहीं इस लड़ाई में ऐसे नायक भी थे जिन्होंने राजनीति के साथ समाज का भी ध्यान रखा. ऐसे ही कुछ समाज सुधारकों में गिने जाते हैं पंडित दीन दयाल उपाध्याय.
Pandit Deendayal Upadhyaya’s Profile – कौन थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय
पं. दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे. आरएसएस के एक अहम नेता और भारतीय समाज के एक बड़े समाजसेवक होने के साथ वह साहित्यकार भी थे. उपाध्याय जी नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे. सादगी भरा उनका व्यवहार और एक उच्च पद का नेता होते हुए भी जमीन से जुड़े रहने की उनकी काबीलियत का सभी सम्मान करते थे.
Quotes of Pandit Deendayal Upadhaya: पंडित जी के कथन
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ना सिर्फ एक महान लेखक थे बल्कि एक सम्मानित विचारक भी रहे हैं. उन्होंने सदैव राष्ट्रहित और राष्ट्र एकता पर बल दिया. अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने देश में एकता की लहर लाने की भरपूर कोशिश की. ऐसी ही एक कोशिश में उन्होंने एक बयान दिया था जो इस तरह से है “हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं. माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा.” उनका यह कथन साफ दर्शाता है कि वह भारत से कितना प्यार करते थे?
Pandit Deendayal Upadhaya’s Biography in Hindi
मथुरा में 25 सितंबर, 1916 को जन्मे पं. दीनदयाल उपाध्याय का बचपन घनी परेशानियों के बीच बीता. मात्र सात साल की आयु में उनके ऊपर से मां-बाप का साया हट गया था. लेकिन इस सब की फ्रिक किए बिना उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की. हालांकि पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने नौकरी न करने का निश्चय किया और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए काम करना शुरू कर दिया. संघ के लिए काम करते-करते वह खुद इसका एक हिस्सा बन गए और राष्ट्रीय एकता के मिशन पर निकल चले.
कैसे बने पंडित जी
दीनदयाल उपाध्याय जी की बचपन की एक घटना ने उन्हें “पंडित” का दर्जा दिला दिया था. दरअसल होता यह था कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी चाची के कहे अनुसार धोती तथा कुर्ते में और सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए था. उम्मीदवारों ने इस पर उनका मजाक बनाया और उन्हें ‘पंडितजी‘ कहकर पुकारा. लेकिन इसका उन्होंने बुरा नहीं माना. बाद में यह उपनाम लाखों लोग उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल करने लगे.
पंडित जी का जीवन
1953 में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना होने पर उन्हें यूपी का सचिव बनाया गया. पं. दीनदयाल को अधिकांश लोग उनकी समाज सेवा के लिए याद करते हैं. दीनदयाल जी ने अपना सारा जीवन संघ को अर्पित कर दिया था. पं. दीनदयाल जी की कुशल संगठन क्षमता के लिए डॉ. श्यामप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि अगर भारत के पास दो दीनदयाल होते तो भारतका राजनैतिक परिदृश्य ही अलग होता.
काश मानी होती आडवाणी की बात तो जिंदा होते दीनदयाल
11 फरवरी, 1968 को भारतीय जनसंघ को अपने राजनीतिक इतिहास का सबसे गहरा आघात सहना पड़ा था, जब उसके नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या कर दी गई थी.
उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें जो सलाह दी थी, उस पर यदि दीनदयाल उपाध्याय ने अमल किया होता तो शायद उनकी हत्या न होती. राजनीतिक कार्य करने साथ लगातार लेखन करते रहने को देखते हुए आडवाणी ने उपाध्याय से एक स्टेनो साथ रखने को कहा था, लेकिन उन्हें यह सुझाव रास नहीं आया. उस समय पटना तक के सफर में उनके साथ कोई रहा होता तो शायद उनकी हत्या न होती. दीनदयाल उपाध्याय जी की लाश यात्रा के बीच में ही मुगलसराय रेलवे स्टेशन के यार्ड में मिली थी. आडवाणी उन दिनों जनसंघ के नेता होने के साथ संघ के पत्र आर्गनाइजर के संपादक भी थे, जिसके लिए दीनदयाल उपाध्याय राजनीतिक डायरी लिखते थे.
पं. दीनदयाल उपाध्याय सच्चे अर्थों में युगपुरुष थे. उनका व्यक्तित्व राष्ट्रीय चिंतन, उच्च विचारों व मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण था. वह दरिद्र नारायण को अपना आराध्य मानते थे.
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