भारत में किसी मुद्दे का ठंड़ा पड़ जाना कोई बड़ी बात नहीं है. यहां रोज ही बहुत सारे ऐसे मामले या विवाद जन्म लेते हैं जिनमें यह क्षमता होती है कि वो पुराने मामलों को ढक सकें और ऐसा होता भी है. मामले कितने भी संगीन क्यों ना हों पर यहां किसी को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि इस देश में क्या हो रहा है और इससे आने वाले समय में देश की छवि पर क्या असर पड़ेगा.
जब दिल्ली में अमानवीय सामूहिक बलात्कार की घटना घटित हुई तो एक अच्छा खासा जन सैलाब देखने को मिला. लेकिन इस जन सैलाब का फायदा समाज को हुआ या नहीं यह बात आज तक साफ नहीं हो पाई है. अब मुद्दा मात्र यहां महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचार का नहीं है मुद्दा यह है कि आखिर क्या कारण हैं जिससे भारत में इस प्रकार के जुर्म होने पर कोई रोक नहीं लगाई जा पा रही है. इस पूरे मामले को कुछ प्रधान तथ्यों के ऊपर विचार कर आसानी से समझा जा सकता है.
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पुलिस की गुलामी: भले ही यह कहा जा रहा हो कि भारत में पुलिस स्वतंत्र रूप से काम करती है पर इसका कोई भी सबूत किसी को ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा. ऐसी बात भी नहीं है कि इस मुद्दे पर कभी विचार नहीं हुआ है पर सारे विचार यहां की राजनीति के सामने घुटने टेक देते हैं. पुलिस का स्वतंत्र ना होना किसी भी देश की न्याय व्यस्था को बहुत ज्यादा लचर बना देता है, जिसके बाद न्याय प्रणाली का होना और ना होने से कोई खास फर्क नहीं पैदा करती.
साल 2006 में एक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस में सुधार होने के लिए क्या किया जाना चाहिए और किस तरह समयबद्ध तरीके से उसे इस प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिए जैसे सुझाव दिए थे लेकिन जैसा की पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि भारत मसले बहुत जल्दी ठंड़े पड़ जाते हैं. उन सुझावो को ना तो कोई स्थान दिया गया भारत में और ना ही इसके ऊपर कोई कार्यवाही ही की गई लेकिन राजनीति के पैरों तले इसे जरूर रौंदा गया. कभी भी यह बात कैसे सोची जा सकती है कि पुलिस किसी राजनैतिक पार्टी के अधीन रहकर समाज और देश के लिए काम कर सकती है. शायद भारतीय राजनीति की भ्रष्टता को साबित करने के लिए कोई सबूत देने की आवश्यकता नहीं है.
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सत्ता पक्ष का पहला हक: भारत में सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ सबसे पहला काम यह होता है कि जितनी जल्दी हो सके पुलिस को अपने साथ मिला लिया जाए और शायद ऐसा होता भी रहा है. जहां सत्ता परिवर्तन के साथ ही पुलिस अपने पिछले मालिक को छोड़ कर नए मालिक की दासता कबूल कर लेती है. हांलाकि इक्का-दूक्का ऐसे मालमे भी हैं जो पुलिस के ऊपर गर्व करने का मौका देते हैं पर ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि पुलिस अपने आप को साबित करने में नाकाम ही साबित रही है. पुलिस रिफॉर्म या पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार को लेकर ना जाने क्यों हमेशा राजनीति खामोश पड़ जाती है और यही कारण है जो पुलिस को कमजोर बनाता है. जहां अनेक मुद्दों पर संसद को अत्याधिक दिन चलाया जा सकता है तो आखिर किन कारणों से एक दिन पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए चर्चा नहीं की जा सकती है. अगर सही मायनों में देश को अपराध मुक्त करना है या अपराध के दरों में कमी करनी है तो पुलिस को वो सभी अधिकार देने होंगे जिन पर उसका अधिकार है.
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