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अंधी राजनीति गूंगी जनता

भारत की राजनीति में आजादी के बाद क्रमशः बदलाव आते दिखाई दिए हैं. यह बदलाव कुछ इस तरह के रहे जिसकी वजह से यहां की राजनीति नए स्वरूप ग्रहण करती रही और जनता से जुड़े अपने सरोकारों को नया अर्थ देती आई. कभी इन बदलावों के सकारात्मक पक्ष जनता को अभिभूत करते रहे हैं तो कभी यहां की राजनीति अपना हित साधने के लिए जनता के अधिकारों का हनन करने से भी नहीं चूकी है. लोकतंत्र में जनता और सियासत का रिश्ता साफ होना चाहिए जो यहां पहले ही देखने को मिलता था पर अब ऐसा होने की किसी को उम्मीद भी नहीं है. साफ शब्दों में कहा जाए तो एक डर है जिसके तले यहां की जनता अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयास कर रही है. डर तो एक है पर यह कई रूपों में हमारे समाज को प्रभावित करता है. आप अगर भारत के स्वाधीन होने की बात अपने मन में बैठा चुके हैं तो यह शायद आपकी भूल है, जिसका खामियाजा आपको उठाना पड़ सकता है.


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अंधी राजनीति गूंगी जनता: राजनीति शायद उस तंत्र का नाम है जहां सर्व-साधारण की जुबान को समझ कर उसके अनुरूप अपनी कार्य-व्यवस्था बनाई जाती है. पर शायद आज की राजनीति अपनी जुबान पर ज्यादा ध्यान देती हुई दिख रही है जिसे जनता के हितों और उसके सरोकारों से कोई वास्ता नहीं है. एक दौर था जहां आधे से ज्यादा राजनेता अपने आप को पत्रकार होने का दावा करते थे जिसका शायद यह साफ मतलब था कि वो अपने आप को बुद्धिजीवियों की श्रेणी में मानते थे पर आज की स्थिति कुछ ऐसी है जहां पत्रकारिता और राजनीति के बीच एक शीत युद्ध चल रहा है. यह शीत युद्ध भले ही कभी उजागर नहीं होता है या शायद इसे कभी किया नहीं जाता है पर यह एक निर्धारित क्रिया के रूप में हमेशा चल रहा है. आज वो सारी दिखाने वाली बातें बदल चुकी हैं जिसके ऊपर कभी अपनी राजनीति को सिद्ध किया जाता था. अब के हालात कुछ ऐसे हैं जहां अपने आपको बुद्धिजीवी साबित करने की कोई आवश्यकता नहीं है बस आप जीव होने चाहिए तो आप राजनीति कर सकते हैं. अब बात यहां आकर फंसती है कि अगर हमारे देश को चलाने वाले इतने शिक्षित हैं तो आखिर किन कारणों से हम उस अनुरूप प्रगति या सुशासन नहीं ला पाते हैं जिसकी अभी भारत को सबसे ज्यादा आवश्यकता है.



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भारतीय राजनीति का बाजारीकरण: अगर सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि भारत में आज राजनीति बदलाव या आवाम की भाषा ना बन कर बाजार का दूसरा विकल्प बन चुकी है. यहां सिर्फ खरीद और बिक्री नहीं होती है साथ-साथ नीलामी भी होने लगी है. जिस प्रकार की राजनीति आज भारत में घर कर चुकी है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में देश की अवस्था और दयनीय होने वाली है. संसद में जिस प्रकार नोट उड़ा कर यह साबित किया जा चुका है कि यहां की राजनीति बिकाऊ हो चुकी है, तो यह अनुमान लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा कि एक लोकतांत्रिक देश में अगर इस प्रकार से राजनीति बिकाऊ हो तो वहां का भविष्य क्या होगा!! भारत अब वो लोकतंत्र नहीं रह गया है जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का तगमा दिया गया है. यहां की विकृत राजनीति ने उस लोकतंत्र की कब की हत्या कर दी है. जिस लोकतंत्र में जनता के अधिकारों और उसके मूल्यों पर राजनीति हावी हो वहां किसी भी तरह से लोकतंत्र जीवित रह ही नहीं सकता है.


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