यह रास्ता भी आखिरकार बंद हो ही गया. अब न आम आदमी को बोलने की आजादी है और ना ही अपनी बात रखने की स्वतंत्रता. नियमों का हवाला देकर जनता के मुंह पर ताला लगाना कोई इनसे सीखे. आज के दौर में सोशल नेटवर्क के बढ़ते प्रभाव कहीं ना कहीं राजनेताओं के लिए परेशानी का कारण बन रहे हैं. पहले ऐसा कोई माध्यम नहीं था जो एक आम आदमी को अपनी बात कहने की आजादी दे, पर आज के इस तकनीक प्रधान युग ने वो माध्यम प्रदान किया है जो सामाजिक और राजनैतिक तौर पर विरोध करने की क्षमता देता है.
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क्या है 66(ए)(act 66a) : दिशा-निर्देश कानून के एक अनुच्छेद 66(ए) में कोई भी व्यक्ति अगर इंटरनेट के माध्यम से द्वेष जाहिर कर किसी के प्रति अपमानजनक टिप्पणी करता है या किसी की मान्यताओं को ठेस पहुंचाता है तो उसे गिरफ्तार किया जाएगा. ऐसे मामले में उस व्यक्ति के ऊपर पुलिस केस दर्ज करने का फैसला डिप्टी कमिश्नर या उससे उच्च पद के अधिकारी करेंगे. इस धारा के अंतर्गत यह भी कहा गया है कि किसी भी महानगर में इस कानून के तहत केस दर्ज करने से पहले पुलिस महानिरीक्षक की सहमति लेनी आवश्यक है.
इस फैसले या नियम को पारित करने में सरकार को उतनी परेशानी नहीं हुई जितनी अन्य किसी भी कानून को पारित करने में होती हैं. यह ठीक सांसदों की वेतन वृद्धि जैसे फैसला था जिसे सभी ने समर्थन देकर पारित करवा दिया था और वो भी बिना किसी खास चर्चा के.
ये तो होना ही था(Freedom Of Speech): इस कानून को पारित करने के लिए ना जाने कब से प्रयास हो रहा था और अंत में इसमें सफलता भी मिली ताकि जितना ज्यादा हो सके उतना ज्यादा जनता को प्रतिवाद करने के साधनों से दूर रखा जाए.
दूरसंचार और आईटी मंत्री कपिल सिब्बल ने इस पूरी बात को सब के सामने रखते हुए कहा कि लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी का गलत फायदा उठा रहे हैं इसलिए इस प्रकार के कदम उठाने के लिए हमें बाध्य होना पड़ा.
लेकिन हम यह बात भी नकार नहीं सकते कि ऐसे कदम उठाकर भारत जैसे लोकतंत्र के लोकतांत्रिक होने पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिए गए हैं. क्योंकि जनता के पास से वो सारे हक छिन रहे हैं जो एक लोकतंत्र में होना चाहिए.
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