राजतंत्र हो या कुलीन तंत्र और वर्तमान का आरोपित लोकतांत्रिक ढांचा इन सब में एक बात पूर्णतया समान होती है और यह बात है वंशानुगत उत्तराधिकार तथा परिवारवाद की जिसमें सत्ता हमेशा पारिवारिक ढांचे के अंतर्गत प्रवाहित होती रहती है. किंतु यह वंशवाद मात्र भारत तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका प्रचलन उतने ही प्रभावी रूप में लगभग सभी अल्प विकसित या नव विकासशील देशों में देखा जा सकता है जहां पर कुछेक परिवार राजनीति में हमेशा महत्वपूर्ण रहे हैं और जिनके प्रभाव से पूरी राजनीतिक व्यवस्था संचालित होती रही है. भारत में जहां गांधी-नेहरू परिवार तक ही अब परिवारवाद सीमित नहीं रह गया है और तमाम नए घराने भी वंशानुगत सत्ता हस्तांतरण का तरीका अपनाने लगे हैं इस प्रथा का विकराल स्वरूप देखा जा सकता है. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव की ताजपोशी के रूप में देखा जा सकता है जिनको बिना अनुभव के प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण कुर्सी का उपहार मिला. उनकी योग्यता बस इतनी है कि वे बहुमत पाए दल के मुखिया के पुत्र हैं.
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किंतु इस प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह है कि वास्तविक नेताओं को कभी भी आगे आने का अवसर नहीं मिल पाता तथा अनुभवहीन तथा हवाई राजनीति करने वाले लोग व्यवस्था पर एकाधिकार जमाए बैठे रहते हैं. लोकतांत्रिक राजनीति में वंशवाद का यह घालमेल बेहद खतरनाक रूप से तानाशाही व्यवस्था का जनक सिद्ध होता है जिससे एकाधिकार तथा वर्चस्व वाले क्षत्रप हमेशा अपना प्रभुत्व कायम किए रहते हैं और वास्तविक योग्यता वाले हाशिये पर चले जाते हैं.
पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका सहित सभी दक्षिण एशियाई देश इसी प्रकार की राजनीतिक अराजकता के शिकार हैं और इन सभी देशों में मात्र चुनिन्दा परिवार ही हमेशा सत्ता में छाए रहते हैं.
इसका निर्धारण भी किया गया था:- किसी लोकतंत्र को किस प्रकार सुचारू रूप से चलाया जा सके इसके लिए काफी सारे नियमों को बनाया गया है पर इन नियमों में भी आवश्यक्ता अनुसार कई फेर-बदल किए गये. प्रक्षालन की विधि द्वारा लोकतंत्र में समान रूपों से पद और ताकत का बटवारा किया गया है, जहां क्रमानुसार उपर से नीचे को विकसित किया जाता है. पर यहां की सबसे बड़ी दिक्कत यह है की लोकतंत्र को राजनीति ने राजतंत्र के बदल दिया है. जहां यह क्रम एक जगह जा कर रुक गया है और यही वंशवाद का सबसे बड़ा अवगुण है. भारत में जहां वो स्तर राजनेताओं के वंश तक ही सिमित रह जाता है वही दूसरे देश भी इससे अछुते नहीं हैं फिलिपींस भी इस दौड़ में शामिल है. अगर हम फिलिपींस की बात करें तो वहां होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में इमेल्डा मार्कोस और जोसेफ एस्ट्राडा का नाम एक बार फिर उभर कर आया है. इमेल्डा मार्कोस फिलिपींस के पूर्व राष्ट्रपति फर्डिनेंड मार्कोस की पत्नी हैं जबकि एस्ट्राडा खुद राष्ट्रपति रह चुके हैं. इन दोनों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं किंतु वंशवादी राजनीति का असर इतना ज्यादा है कि व्यवस्था में इनकी भागीदारी की उपेक्षा नहीं की जा सकती.
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क्या और कोई विकल्प नहीं
श्रीलंका, पकिस्तान, भारत जैसे लोकतंत्रों में अगर राजतंत्र की अप्रत्यक्ष परछाई छुपी है तो वो सारे नियम निरर्थक ही हैं जो इस लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए बनाए गए थे. फिलिपींस में खुले तौर पर यह कहा जा रहा है कि “आप बहुत आगे जा सकते हैं लेकिन राष्ट्रपति नहीं चुने जा सकते जब तक कि आप किसी खास परिवार से ना हों.’’ इस कथन से शायद उन सभी के चेहरे सामने आ रहे हैं जो वंशवाद की शाख पर अपनी तूती बुलवाते हैं और उन सारे मानकों को तोड़ते हैं जो एक प्रकार से लोकतंत्र की नींव हैं.
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