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कांशीराम : गर यह ना होते तो मायावती का क्या होता ?

आज भारतीय राजनीति की एक अहम कड़ी हैं बहन मायावती. महिला सशक्तिकरण के इस दौर में यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती एक आदर्श हैं लेकिन उनकी क्षमताओं को निखारने के पीछे एक ऐसे जौहरी का कमाल है जिसने डा. अंबेडकर जी के बाद देश में सही मायनों में दलितों को संगठित किया और यह शख्स थे स्व. श्री कांशीराम.


Kanshi Ram: गरीबों और दलितों के मसीहा

कांशीराम ने गरीबों, दलितों को जीने की राह दिखाई है. कांशीराम का उद्देश्य सर्व जनहिताय, सर्व जनसुखाय रहा. कांशीराम उन लोगों में से थे जो अपना सुख आराम त्याग कर गरीबों की सेवा में अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं. जिंदगी भर अविवाहित रहकर, बिना किसी लाभ के पद पर रहे हुए उन्होंने बीएसपी और दलित समाज को संगठित किया. सोशल इंजीनियरिंग का उन्होंने जो सफल मंत्र दिया वह भारतीय इतिहास में अद्वितीय है. आज इसी सोशल इंजीनियरिंग के बल पर मायावती अपनी राजनीति चमका रही हैं.


Kanshi Ram मायावती और कांशीराम

आज हम जिस मायावती जी को देखते हैं वह कांशीराम के सहयोग के बिना कुछ नहीं थीं. अगर कांशीराम ने मायावती की क्षमता को नहीं समझा होता और उन्हें जमीन से उठाकर आसमां की बुलंदी पर बैठने का मौका ना दिया होता तो शायद आज हम भारतीय राजनीति की पहचान बन चुकी मायावती जी को नहीं देख पाते और सिर्फ मायावती ही क्यूं कांशीराम की बदौलत ही पूरे भारत में बीएसपी ने अपने पांव जमाएं और हजारों नेताओं ने अपनी किस्मत चमकाई.


मायावती: एक जीवन परिचय


कांशीराम का जीवन

5 मार्च, 1934 को रामदसिया सिख परिवार में जन्में कांशीराम की प्रारंभिक शिक्षा गांव खवासपुर में हुई और स्नातक परीक्षा उन्होंने रोपड़ से उत्तीर्ण की. 1957 में उन्होंने भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग में नौकरी की, लेकिन बाद में वहां से इस्तीफा देकर पुणे में अनुसंधान रक्षा लेबोरेटरी में केमिस्ट बन गए. 1964 में वह महाराष्ट्र में आरपीआई के साथ जुड़े. इसी दौरान उन्होंने बाबा साहेब अंबेडकर की दो पुस्तकें पढ़ीं, जो जाति व्यवस्था समाप्त करने तथा अस्पृश्य लोगों के लिए गांधीजी और कांग्रेस के कार्यों से संबंधित थीं. उन्होंने दूसरी पुस्तक से प्रेरणा लेकर ही ‘चमचा युग’ पुस्तक लिखी. 1978 में उन्होंने बैकवर्ड एंड माइनरिटीज कम्यूनिटीज एम्प्लाइज फेडरेशन का गठन किया. यह अराजनीतिक और गैर-धार्मिक संगठन था. 6 दिसंबर, 1981 को उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डी-एस 4) का गठन किया और लोकप्रिय नारा दिया- ‘ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़ बाकी सब हैं डी-एस 4’. डी-एस 4 द्वारा किए गए तीन महत्वपूर्ण कार्य थे-पहियों पर अंबेडकर मेले का आयोजन, तीन हजार किमी. तक साइकिल रैली निकालना और जनता की संसद का गठन करना.


डीएस 4 का गठन

डी एस 4 की तरह ही कांशीराम ने बामसेफ का भी गठन किया. बामसेफ ब्राह्मणवादी व्यवस्था में बदलाव चाहता था. बामसेफ का गठन कांशीराम ने अपने कुछ मराठा मित्रों के साथ मिलकर 6 दिसंबर, 1978 को किया था. बामसेफ ने ही 1984 में बसपा को जन्म दिया.


Kanshi-Ram-Bicycle-March1कांशीराम की नीतियां

जब बसपा ने चुनाव लड़ना शुरू कर दिया तो उन्होंने एक नोट, एक वोट नारा देकर नोट और वोट खींचे. धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ी और समर्थक उन्हें सिक्कों में तौलने लगे. इस पैसे का इस्तेमाल उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए किया. उन्होंने खुद तो कभी राजनीति नहीं की लेकिन उन्होंने हजारों लोगों को राजनीति में आने का मौका दिया. उनकी नीतियों को कई लोग बेहद महान मानते हैं. बाबा भीमराव अंबेडकर के बाद उन्होंने ही देश के दलितों को सही मायनों में एक करने का सपना सच कर दिखाया. सोशल इंजीनियरिंग का उन्होंने जो फंडा दिया उसका इस्तेमाल करके ही बीएसपी ने पिछले कई सालों तक यूपी में राज किया. उनकी कार्यशैली की वजह से ही एक समय बीएसपी और सपा में गठबंधन हो पाया था लेकिन राजनीतिक षडयंत्र की वजह से यह गठबंधन नहीं चल पाया.

विपक्ष में बैठना पसंद नहीं मायावती को

लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी लोग कांशीराम की कार्यशैली के मुरीद थे. कई राजनीतिक सलाहकार कांशीराम को देश में जातिवाद राजनीति को बढ़ावा देने का दोषी मानते हैं. यूपी में तो कई लोग इन्हें खलनायक के तौर पर भी देखते हैं. इनका मायावती के प्रति विशेष रुझान भी इनकी निंदा का कारण बनता है. साथ ही इनकी नीतियों की वजह से दलितों का तो उत्थान हुआ लेकिन पिछडों और दलितों के बीच जो अंतर्द्वंद की स्थिति पैदा हुई उसका दोषी भी कई लोग कांशीराम को ही मानते हैं.


कांशीराम ऊपर से नहीं थोपे गए थे, बल्कि उनके बहुत छोटी पृष्ठभूमि से उठकर एक राष्ट्रीय स्तर का नेता बनने में इस बात का बड़ा हाथ था कि उन्हें अधिकांश दलितों का विश्वास मिला. उन्होंने जीवन में कुछ संकल्प बखूबी निभाए, जैसे शादी न करना, जन्म, मृत्यु अथवा विवाह संस्कार में शामिल न होना. बसपा प्रमुख मायावती इस बात से कतई इंकार नहीं कर सकतीं कि यदि कांशीराम नहीं होते तो मायावती राजनीति में न होतीं.

देश में ऐसे प्रतिभाशाली और क्रांतिकारी प्रवृत्ति के नेता बहुत कम आते हैं लेकिन इनकी सोच और सर्वजन हिताय की सोच को आज बीएसपी शायद भूल चुकी है. बीएसपी कार्यकाल में खर्च हुए फिकूल के पैसे और पिछड़ों एवं दलितों की अनदेखी साफ दर्शाती है कि आज मायावती अपने आदर्श को पैसों और सत्ता की चमक के आगे भूल चुकी हैं.


कांशीराम जी का 09 अक्टूबर 2009 को लंबी बीमारी की वजह से निधन हो गया था.

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