एक स्वस्थ लोकतंत्र में सरकार की गलत नीतियों और बिगड़ रही कानून व्यवस्था के खिलाफ विरोध करने का अधिकार हर किसी को है. इस तरह के विरोध से सरकार के पास यह संदेश जाता है कि गलत नीतियों का निर्माण करके वह मनमानी नहीं कर सकते दूसरे इस तरह के विरोध से लोकतंत्र को और अधिक मजबूती भी मिलती है. लेकिन पिछली कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो पता चलता है कि जनता के विरोध करने के स्वभाव में काफी बदलाव आया है.
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बिहार के मधुबनी में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कॉन्ट्रेक्ट पर रखे गए शिक्षकों की नाराजगी का सामना उस समय करना पड़ा, जब लोगों ने नीतीश के ‘अधिकार यात्रा’ पर आधारित एक कार्यक्रम के दौरान उन्हें चप्पलें दिखाईं. इसी तरह का मामला उस समय देखने को मिला जब खुदरा व्यापार में एफडीआई का विरोध कर रहे व्यापारियों के एक समूह ने केंद्रीय कोयला मंत्री और कानपुर के सांसद श्रीप्रकाश जायसवाल के खिलाफ नारेबाजी की और उनके काफिले पर जूते-चप्पल भी उछाले. हद तो तब हो गई जब दिल्ली के विज्ञान भवन में दर्शकों के बीच बैठा एक शख्स अचानक मंच पर आकर शर्ट उताकर प्रधानमंत्री के खिलाफ नारेबाजी करने लगा.
उग्र और उत्तेजित होकर जनप्रतिनिधियों के खिलाफ प्रदर्शन का यह कोई नया मामला नहीं है. इससे पहले भी कई बार इन रहनुमाओं को जनता के गुस्से का शिकार होना पड़ा है. कई लोग जहां एक तरफ इस तरह के विरोध प्रदर्शन को विपक्ष का राजनीतिक हथकंडा मानते हैं वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग देश में बढ़ रही मंहगाई और अराजकता को इसके पीछे की वजह गिनाते हैं.
अगर वास्तव में मंहगाई और अराजकता इसकी मुख्य वजह है तो जनता का गुस्से से इस तरह से आग बबूला होना किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सही संकेत नहीं है. यही गुस्सा आगे चलकर सरकार के खिलाफ एक हिंसक रूप ले सकता है. ऐसे में उस देश की छवि भी धूमिल होगी जहां इस तरह का असंयमित विरोध प्रदर्शन किया जाता है और इसके साथ-साथ लोकतंत्र के मूल स्वरूप को भी काफी ठेस पहुंचेगी. अगर जनता इस तरह के विरोध प्रदर्शन को अपना जरिया बनाती है तो सरकार को सावधान हो जाना चाहिए और एक बार उन्हें अपनी नीतियों की पुनर्समीक्षा करनी चाहिए कि कहीं उन्होंने आमजन के खिलाफ कोई कानून तो नहीं बना दिया.
भारत देश शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए विश्व विख्यात है. देश के कई महापुरुषों ने शांतिपूर्ण आंदोलन को जरिया बनाकर भारत की आजादी में मुख्य योगदान दिया. अगर लोगों का शांतिपूर्ण आंदोलन से विश्वास उठ गया तो कोई भी लोकतंत्र के मूल्यों पर विश्वास नहीं करेगा.
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