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गठबंधनों के टूटने और बनने का संक्रमण काल

नए राजनीतिक घटनाक्रमों के बीच यूपीए का गठबंधन तो आजकल खतरे में नजर आने लगा है पर वास्तविक रूप में देखा जाए तो एनडीए गठबंधन भी कुछ खास मजबूत नजर नहीं आ रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि ये गठबंधन टूट-फूट के शिकार होने वाले हों और किसी नए गठजोड़ की शुरुआत हो रही हो. यदि यूपीए या एनडीए नहीं तो फिर क्या कोई नया गठबंधन भविष्य में नजर आने की उम्मीद है. शायद हां. आज पार्टियों की अपनी कोई विचारधारा नहीं रह गई है. वे बस अपने स्वार्थों को पूर्ण करने में लगी हैं.


politicsचाहे ममता हों या फिर मुलायम और माया. यहां तक कि डीएमके, एआईडीएमके, जद(यू) या शिवसेना सहित सभी क्षेत्रीय राजनीतिक दल और क्षत्रप सिर्फ अवसर की ताक में दिखाई दे रहे हैं कि कब बड़ा मौका हाथ लगे और वे अपने आप को ब्लैकमेल करने की स्थिति में पहुंचा सकें. देश में वास्तव में कोई भी ऐसा गठबंधन नहीं है जिसे लेकर यह कहा जा सके कि उनका गठबंधन किसी विचारधारा पर आधारित है. हां, भले ही विचारधारा और सिद्धांतों पर आधारित गठबंधन नजर ना आए पर ऐसा गठबंधन जरूर दिख जाएगा जो सिर्फ इसलिए एक गठबंधन होगा क्योंकि उनमें शामिल दलों के विभिन्न प्रकार के हितों की पूर्ति हो रही होगी और जिस दिन उन हितों की पूर्ति में अड़चन आ गई उस दिन समर्थन वापस लेने की राजनीति खेली जाएगी.


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समाजवादी पार्टी और बसपा जो यूपीए को बाहर से समर्थन दे रही हैं वो आजकल यूपीए की संकटमोचक पार्टियां नजर आती हैं पर इन संकटमोचक पार्टियों पर ज्यादा समय तक भरोसा नहीं किया जा सकता है और इस बात को लेकर शंका करना जायज है. समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव जो कभी तो यह कहते हुए नजर आते हैं कि वो सरकार को समर्थन देंगे तो कभी यह कहते हुए नजर आते हैं कि यूपीए गठबंधन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस पार्टी की नीतियों के ऊपर निर्भर करेगा कि वो समाजवादी पार्टी से समर्थन चाहेगी या नहीं? इस बात का अर्थ यह लगाया जा सकता है यदि नीतियां समाजवादी पार्टी के हित में हुईं तो यूपीए गठबंधन को समर्थन मिल जाएगा वरना फिर समर्थन वापस लेने की धमकी से काम निकलवाने की कोशिश की जाएगी.


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यही हाल कुछ जेडीयू का दिख रहा है जो फिलहाल एनडीए की समर्थक है पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि वो अगली सरकार बनाने में उसी पार्टी को समर्थन देंगे, जो बिहार को विशेष दर्जा देगी. तो अगर नीतीश कुमार की बातों पर ध्यान दिया जाए तो यही लगता है कि वे भी ब्लैकमेलिंग की राजनीति आजमाने को आतुर हैं. यूपीए के लिए सबसे बड़ा खतरा यह है उसके महत्वपूर्ण सहयोगी दल द्रमुक ने भी भारत बंद में भाजपा का साथ देकर सिद्ध कर दिया है कि यूपीए गठबंधन को सरकार चलाने के लिए अन्य दलों का समर्थन जुटाना शुरू कर देना चाहिए.


बीजू जनता दल प्रमुख नवीन पटनायक की पार्टी फिलहाल एनडीए की समर्थक है पर आने वाले समय में यह शंका जाहिर की जा रही है कि बीजू जनता दल जो एनडीए का महत्वपूर्ण समर्थक दल है वो कहीं आने वाले समय में यूपीए की समर्थक ना बन जाए और यूपीए जैसे गठबंधन के लिए संकटमोचक पार्टी बनकर उभरे.


राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही देश में नए गठबंधन बनने और पुराने गठबंधनों से मुंह मोड़ने की नीति अपनाए जाने का संकेत मिलना शुरू हो चुका है. इस बात को इस बार के राजनैतिक घटनाक्रम ने मजबूती प्रदान की है. जहां शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना भाजपा की नीतियों से असहमत दिखाई दे रहे हैं वहीं ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, डीएमके और समाजवादी दल यूपीए से असहमत नजर आ रहे हैं. हालांकि अभी सिर्फ कयास लगाया जा सकता कि कौन किसके साथ जाएगा किंतु इस बात का स्पष्ट संकेत मिलना शुरू हो चुका है कि कोई तीसरा मोर्चा भी अस्तित्व में आ सकता है. यानि रणनीतिकारों और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए इस बात पर विचार का समय आ चुका है कि 2014 के चुनाव में देश की राजनीति किस ओर करवट लेगी इस पर मनन करें.


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